जो तुम त्यागों राम हौं तौ नहिं त्यागो । परिहरि पाँय काहि अनुरागों ॥१॥
सुखद सुप्रभु तुम सो जगमाहीं । श्रवन - नयन - मन - गोचर नाहीं ॥२॥
हौं जड़ जीव , ईस रघुराया । तुम मायापति , हौं बस माया ॥३॥
हौं तो कुजाचक , स्वामी सुदाता । हौं कुपूत , तुम हितु पितु - माता ॥४॥
जो पै कहुँ कोउ बूझत बातो । तौ तुलसी बिनु मोल बिकातो ॥५॥
भावार्थः - हे रामजी ! यदि आप मुझे त्याग भी देंगे , तो भी मैं आपको नहीं छोडूँगा । क्योंकि आपके चरणोंको छोड़कर मैं और किसके साथ प्रेम करुँ ? ॥१॥
आपके समान सुख देनेवाला सुन्दर स्वामी इस संसारमें आजतक न कानोंसे सुना है , न आँखोंसे देखा है और न मनसे अनुमानमें ही आता है ॥२॥
हे रघुनाथजी ! मैं जड़ जीव हूँ और आप ईश्वर हैं । आप मायाके स्वामी हैं ( माया आपके वशमें है ) और मैं मायाके वश होकर रहता हूँ ॥३॥
मैं तो एक कृतघ्न भिखमंगा हूँ और आप बड़े उदार स्वामी हैं , मैं आपका कुपूत हूँ और आप हित करनेवाले माता - पिता हैं । भाव यह है कि लड़का कुपूत होनेपर भी माँ - बाप उसका हित ही करते हैं , ऐसे ही आप भी सदा मेरा पालन - पोषण ही किया करते हैं ॥४॥
यदि कहीं कोई भी मेरी बात पूछता , तो यह तुलसीदास बिना ही मोल ( उसके हाथ ) बिक जाता । ( परन्तु आपके सिवा मुझ - सरीखे नीचको कौन रखता है ? अतः मैं आपको कभी नहीं छोडूँगा ) ॥५॥