जौ पै जिय धरिहौ अवगुन जनके ।
तौ क्यों कटत सुकृत - नखते मो पै, बिपुल बृंद अघ - बनके ॥१॥
कहिहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अरु मनके ।
हारहि अमित सेष सारद श्रुति, गिनत एक - एक छनके ॥२॥
जो चित चढ़ैं नाम - महिमा निज, गुनगन पावन पनके ।
तो तुलसिहिं तारिहौ बिप्र ज्यों दसन तोरि जमगनके ॥३॥
भावार्थः- हे नाथ ! यदि आप इस दासके दोषोंपर ध्यान देंगे, तब तो पुण्यरुपी नखसे पापरुपी बड़े - बड़े वनोंके समूह मुझसे कैसे कटेंगे ? ( मेरे जरा - से पुण्यसे भारी - भारी पाप कैसे दूर होंगे ? ) ॥१॥
मन, वचन और शरीरसे किये हुए मेरे पापोंका वर्णन भी कौन कर सकता है ? एक - एक क्षणके पापोंका हिसाब जोडनेमे अनेक शेष, सरस्वती और वेद हार जायँगे ॥२॥
( मेरे पुण्योंके भरोसे तो पापोंसे छूटकर उद्धार होना असम्भव हे ) यदि आपके मनमें अपने नामकी महिमा और पतितोंको पावन करनेवाले अपने गुणोंका स्मरण आ जाय तो आप इस तुलसीदासको यमदूतोंके दाँत तोड़कर संसार - सागरसे अवश्य वैसे ही तार देंगे, जैसे अजामिल ब्राह्मणको तार दिया था ॥३॥