राम कबहुँ प्रिय लागिहौ जैसे नीर मीनको ?
सुख जीवन ज्यों जीवको , मनि ज्यों फनिको हित , ज्यों धन लोभ - लीनको ॥१॥
ज्यों सुभाय प्रिय लगति नागरी नागर नवीनको ।
त्यों मेरे मन लालसा करिये करुनाकर ! पावन प्रेम पीनको ॥२॥
मनसाको दाता कहैं श्रुति प्रभु प्रबीनको ।
तुलसीदासको भावतो , बलि जाउँ दयानिधि ! दीजै दान दीनको ॥३॥
भावार्थः - हे श्रीरामजी ! मुझे क्या कभी आप ऐसे प्यारे लगेंगे , जैसा मछलीको जल प्यारा लगता है , जीवको सुखमय जीवन प्यारा लगता है , साँपको मणि प्रिय लगती है और अत्यन्त लोभीको धन प्यारा लगता है ? ॥१॥
अथवा जैसे नवयुवक नायकको स्वभावसे ही नवयुवती चतुरा नायिका प्यारी लगती है , वैसे ही हे करुणाकी खानि ! मेरे मनमें केवल आपके प्रति पवित्र और अनन्य प्रेमकी ही एक लालसा उत्पन्न कर दीजिये ॥२॥
वेद कहते हैं कि प्रभु मनमानी वस्तु देनेवाले हैं और बड़े ही चतुर हैं ( बिना ही कहे मनकी बात जानकर उसे पूरी कर देते हैं ) । हे दयानिधे ! मैं आपकी बलैया लेता हूँ , इस दीन तुलसीदासको भी उसकी मनचाही वस्तुका दान दे दीजिये ॥३॥