मनोरथ मनको एकै भाँति ।
चाहत मुनि - मन - अगम सुकृत - फल , मनसा अघ न अघाति ॥१॥
करमभूमि कलि जनम , कुसंगति , मति बिमोह - मद - माति ।
करत कुजोग कोटि , क्यों पैयत परमारथ - पद सांति ॥२॥
सेइ साधु - गुरु , सुनि पुरान - श्रुति बूझ्यो राग बाजी ताँति ।
तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरु - सो , ज्यों दरपन मुख - कांति ॥३॥
भावार्थः - मनका मनोरथ भी एक ( विलक्षण ) ही प्रकारका है । वह इच्छा तो करता है ऐसे पुण्योंके फलकी जो मुनियोंके मनको भी दुर्लभ है , किंतु पाप करनेसे उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती ( करुँ पाप और चाहूँ सर्वश्रेष्ठ पुण्यका फल , यह कैसे हो सकता है ? ) ॥१॥
कर्म - भूमि भारतवर्षमें होनेपर भी कलियुगमें जन्म , नीचोंकी संगति , अज्ञान तथा घमंडसे मतवाली बुद्धि एवं करोड़ों बुरे - बुरे कर्म - इन सबके कारण परम पद और शान्ति कैसे मिल सकती है ? ॥२॥
संतों और गुरुकी सेवा करने तथा वेद और पुराणोंके सुननेसे परम शान्तिका ऐसा निश्चय हो जाता है जैसे सारंगी बजते ही राग पहचान लिया जाता है । हे तुलसी ! प्रभु रामचन्द्रजीका स्वभाव तो अवश्य ही कल्पवृक्षके समान है ( जो उनसे माँगा जाता है , वही मिल जाता है ) किन्तु , साथ ही वह ऐसा है , जैसे दर्पणमें मुखका प्रतिविम्ब । ( जिस प्रकार अच्छा या बुरा जैसा मुँह बनाकर दर्पणमें देखा जायगा , वह वैसा ही दिखायी देगा , इसी प्रकार भगवान् भी तुम्हारी भावनाके अनुसार ही फल देंगे ) ॥३॥