यह बिनती रघुबीर गुसाईं ।
और आस - बिस्वास - भरोसो, हरो जीव - जड़ताई ॥१॥
चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि - सिधि बिपुल बड़ाई ।
हेतु - रहित अनुराग राम - पद बढ़ै अनुदिन अधिकाई ॥२॥
कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई ।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ - अंडकी नाईं ॥३॥
या जगमें जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई ।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाईं ॥४॥
भावार्थः- हे श्रीरघुनाथजी ! हे नाथ ! मेरी यही विनती है कि इस जीवको दूसरे साधन, देवता या कर्मोंपर जो आशा, विश्वास और भरोसा है, उस मूर्खताको आप हर लीजिये ॥१॥
हे राम ! मैं शुभगति, सदबुद्धि, धनसम्पत्ति, ऋद्धि - सिद्धि और बड़ी भारी बड़ाई आदि कुछ भी नहीं चाहता । बस, मेरा तो आपके चरण - कमलोंमें दिनोंदिन अधिक - से - अधिक अनन्य और विशुद्ध प्रेम बढ़ता रहे, यही चाहता हूँ ॥२॥
मुझे अपने बुरे कर्म जबरदस्ती जिस - जिस योनिमें ले जायँ, उस - उस योनिमें ही हे नाथ ! जैसे कछुआ अपने अंडोंको नहीं छोड़ता, वैसे ही आप पलभरके लिये भी अपनी कृपा न छोड़ना ॥३॥
हे नाथ ! इस संसारमें जहाँतक इस शरीरका ( स्त्रीपुत्र परिवारादिसे ) प्रेम, विश्वास और सम्बन्ध है, सो सब एक ही स्थानपर सिमटकर केवल आपसे ही हो जाय ॥४॥