बारक बिलोक बलि कीजै मोहिं आपनो ।
राय दशरथके तू उथपन - थापनो ॥१॥
साहिब सरनपाल सबल न दूसरो ।
तेरो नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो ॥२॥
बचन करम तेरे मेरे मन गड़े हैं ।
देखे सुने जाने मैं जहान जेते बड़े हैं ॥३॥
कौन कियो समाधान सनमान सीलाको ।
भृगुनाथ सो रिषी जितैया कौन लीलाको ॥४॥
मातु - पितु - बन्धु - हितु , लोक - बेदपाल को ।
बोलको अचल , नत करत निहाल को ॥५॥
संग्रही सनेहबस अधम असाधुको ।
गीध सबरीको कहौ करिहै सराधु को ॥६॥
निराधारको अधार , दीनको दयालु को ।
मीत कपि - केवट - रजनिचर - भालु को ॥७॥
रंक , निरगुनी , नीच जितने निवाजे हैं ।
महाराज ! सुजन - समाज ते बिराजे हैं ॥८॥
साँची बिरुदावली न बढ़ि कहि गई है ।
सीलसिंधु ! ढील तुलसीकी बेर भई है ॥९॥
भावार्थः -- हे नाथ ! बलिहारी ! एक बार मेरी ओर देखकर मुझे अपना लीजिये । हे श्रीदशरथनन्दन ! आप उखड़े हुए जीवोंको फिरसे जमानेवाले हैं ॥१॥
आपके समान कोई दूसरा शरणागतोंका पालनेवाला सर्वशक्तिमान् स्वामी नहीं है । आपका नाम लेते ही ऊसर खेत भी उपजाऊ हो जाता है । भाव यह कि जिनके भाग्यमें सुखका लेश भी नहीं है वे भी आपके नामके जपसे भक्ति - ज्ञानको प्राप्त कर परम आनन्द लाभ करते हैं ॥२॥
आपके वचन और कर्म मेरे मनमें गड़ गये हैं ( स्थान - स्थानपर दीनोंके उद्धारकी प्रतिज्ञा और अजामिल , गणिका आदि दीनोंके उद्धाररुपी कर्म देखकर मुझे दृढ़ विश्वास हो गया है ) और मैंने उन लोगोंको भी देख , सुन और समझ लिया है जो दुनियामें बड़े कहे जाते हैं ॥३॥
उनमेंसे किसने शिला बनी हुई अहल्याका शाप दूरकर उसे शान्ति प्रदान की , और किसने लीलासे ही परशुराम - जै से महाक्रोधी ऋषिको जीत लिया ? ( किसीने नहीं ) ॥४॥
माता , पिता और भाईके लिये किसने लोक और वेदकी मर्यादाका पालन किया ? अपने वचनोंका अडिग कौन है ? और प्रणाम करते ही प्रणतको कौन निहाल कर देता है ? ( केवल एक श्रीरघुनाथजी ही ) ॥५॥
प्रेमके अधीन होकर किसने नीचों और दुष्टोंको इकट्ठा किया , अपनाया ? गीध और शबरीका ( पिता - माताकी तरह ) कौन श्राद्ध करेगा ? ॥६॥
जिनके कहीं कोई सहारा नहीं है , उनका आधार कौन है ? दीनोंपर दया करनेवाला कौन है ? और बंदर , मल्लाह , राक्षस तथा रीछोंका मित्र कौन है ? ( सिवा रघुनाथजीके दूसरा कोई नहीं ) ॥७॥
हे महाराज ! आपने जितने कंगाल , मूर्ख और नीचोंको निहाल किया है , वे सब ही आज संतोंके समाजमें विराजित हो रहे हैं ॥८॥
यह आपकी सच्ची - सच्ची बड़ाई कही गयी है , ( एक अक्षर भी ) बढ़ाकर नहीं कहा है । किंतु हे शीलके समुद्र ! तुलसीदासके ही लिये इतनी देर क्यों हो रही है ? ॥९॥