कृपासिंधु ताते रहौं निसिदिन मन मारे ।
महाराज ! लाज आपुही निज जाँघ उघारे ॥१॥
मिले रहैं, मार्यौं चहैं कामादि संघाती ।
मो बिनु रहैं न, मेरियै जारैं छल छाती ॥२॥
बसत हिये हित जानि मैं सबकी रुचि पाली ।
कियो कथकको दंड हौं जड़ करम कुचाली ॥३॥
देखी सुनी न आजु लौं अपनायति ऐसी ।
करहिं सबै सिर मेरे ही फिरि परै अनैसी ॥४॥
बड़े अलेखी लखि परैं, परिहरै न जाहीं ।
असमंजसमें मगन हौं, लीजै गहि बाहीं ॥५॥
बारक बलि अवलोकिये, कौतुक जन जी को ।
अनायास मिटि जाइगो संकट तुलसीको ॥६॥
भावार्थः- हे कृपासिन्धु ! इसीलिये मै रात - दिन मन मारे रहता हूँ, कि हे महाराज ! अपनी जाँघ उघाड़नेसे अपनेको ही लाज लगती है ॥१॥
यह काम, क्रोध, लोभ आदि साथी मिले भी रहते हैं और मारना भी चाहते हैं, ऐसे दुष्ट हैं ! ये मेरे बिना रहते भी नहीं और छल करके मेरी ही छाती जलाते हैं । भाव यह कि अपने ही बनकर मारते हैं ॥२॥
ये मेरे हदयमें बसते हैं, मैंने ऐसा समझकर प्रेमपूर्वक इन सबकी रुचि भी पूरी कर दी हैं, अर्थात् सब विषय भोग चुका हूँ, फिर भी इन दुष्टों और कुचालियोंने मुझे कत्थक ( जादूगर ) की लकड़ी बना रखा है ( लकड़ीके इशारेसे जैसे नाच नचाते हैं, वैसे ही ये मुझे नचाते हैं ) ॥३॥
ऐसी अपनायत ( आत्मीयता ) तो आजतक मैंने कहीं भी नहीं देखीसुनी । कर्म तो करें सब आप, और जो कुछ बुराई हो, वह मेरे सिर आवे ॥४॥
मुझे ये सब बड़े ही अन्यायी दीखते हैं ! पर छोड़े नहीं जाते । बड़े ही असमंजसमें पड़ा हुआ हूँ । अब हाथ पकड़कर आप ही निकालिये ( नहीं तो अपने - से बने हुए ये मुझे मारकर ही छोड़ेंगे ) ॥५॥
आपकी बलैया लेता हूँ, कृपाकर एक बार अपने इस दासका यह कौतुक तो देखिये । आपके देखते ही तुलसीका दुःख सहज ही दूर हो जायगा ॥६॥