ज्यों ज्यों निकट भयो चहौं कृपालु ! त्यों त्यों दूरि पर्यो हौं ।
तुम चहुँ जुग रस एक राम ! हौं हूँ रावरो , जदपि अघ अवगुननि भर्यो हौं ॥१॥
बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छर्यो हौं ।
हौं सुबरन कुबरन कियो , नृपतें भिखारि करि , सुमतितें कुमति कर्यो हौं ॥२॥
अगनित गिरि - कानन फिरयो , बिनु आगि जर्यो हौं ।
चित्रकूट गये हौं लखि कलिकी कुचालि सब , अब अपडरनि डर्यो हौं ॥३॥
माथ नाइ नाथ सों कहौं , हाथ जोरि खर्यो हौं ।
चीन्हों चोर जिय मारिहै तुलसी सो कथा सुनि प्रभुसों गुदरि निबर्यो हौं ॥४॥
भावार्थः - हे कृपानिधान ! ज्यों - ज्यों मैं आपके निकट होना चाहता हूँ , त्यों - ही - त्यों दूर होता चला जाता हूँ । हे रामजी ! आप चारों युगोंमें सदा एकरस हैं और मैं भी आपका रहा आया हूँ , यद्यपि मैं पापों और अवगुणोंसे भरा हूँ ॥१॥
आपसे अलग रहनेका मौका पाकर इस नीच कलियुगने मुझे बीचहीमें छलोंसे छल लिया ( अज्ञानसे ही इसको जीवत्व प्राप्त हो गया । ) मैं सुवर्ण था , पर इसने कुवर्ण कर दिया ( नित्य आनन्दघनरुपसे दुःखग्रस्त जीवरुपमें परिणत कर दिया ) । राजासे रंक बना डाला और ज्ञानीसे अज्ञानी कर डाला ॥२॥
तबसें मैं ( अनेक योनियोंमें ) अगणित पहाड़ों और जंगलोंमें भटकता रहा और बिना ही आगके ( अज्ञानजनित दुःखदावानलसे ) जलता रहा । परन्तु जब मैं चित्रकूट गया , ( अज्ञानजनित दुःखदावानलसे ) जलता रहा । परन्तु जब मैं चित्रकूट गया , ( और वहाँ आपका प्रेमपूर्वक भजन करने लगा ) तब ( आपकी कृपासे ) मैं इस कलिकी सारी कुचालें तो समझ गया ( तथापि ) अब मैं अपने ही डरसे डर रहा हूँ ॥३॥
मैं हाथ जोड़कर प्रभुके सामने खड़ा हुआ मस्तक नवाकर कह रहा हूँ कि पहचाना हुआ चोर फिर जीवको ( प्रायः ) मार ही डालता है ; ( कलियुग पहचाना हुआ चोर है , वह दाँव देख रहा है ) इस बातको सुनकर तुलसी अपने स्वामीसे विनय करके निश्चित हो चुका ( अब आप स्वयं ही उचित समझकर उपाय कीजिये ) ॥४॥