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विनयावली १९५

विनय पत्रिका - विनयावली १९५

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


ज्यों ज्यों निकट भयो चहौं कृपालु ! त्यों त्यों दूरि पर्यो हौं ।

तुम चहुँ जुग रस एक राम ! हौं हूँ रावरो , जदपि अघ अवगुननि भर्यो हौं ॥१॥

बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छर्यो हौं ।

हौं सुबरन कुबरन कियो , नृपतें भिखारि करि , सुमतितें कुमति कर्यो हौं ॥२॥

अगनित गिरि - कानन फिरयो , बिनु आगि जर्यो हौं ।

चित्रकूट गये हौं लखि कलिकी कुचालि सब , अब अपडरनि डर्यो हौं ॥३॥

माथ नाइ नाथ सों कहौं , हाथ जोरि खर्यो हौं ।

चीन्हों चोर जिय मारिहै तुलसी सो कथा सुनि प्रभुसों गुदरि निबर्यो हौं ॥४॥

भावार्थः - हे कृपानिधान ! ज्यों - ज्यों मैं आपके निकट होना चाहता हूँ , त्यों - ही - त्यों दूर होता चला जाता हूँ । हे रामजी ! आप चारों युगोंमें सदा एकरस हैं और मैं भी आपका रहा आया हूँ , यद्यपि मैं पापों और अवगुणोंसे भरा हूँ ॥१॥

आपसे अलग रहनेका मौका पाकर इस नीच कलियुगने मुझे बीचहीमें छलोंसे छल लिया ( अज्ञानसे ही इसको जीवत्व प्राप्त हो गया । ) मैं सुवर्ण था , पर इसने कुवर्ण कर दिया ( नित्य आनन्दघनरुपसे दुःखग्रस्त जीवरुपमें परिणत कर दिया ) । राजासे रंक बना डाला और ज्ञानीसे अज्ञानी कर डाला ॥२॥

तबसें मैं ( अनेक योनियोंमें ) अगणित पहाड़ों और जंगलोंमें भटकता रहा और बिना ही आगके ( अज्ञानजनित दुःखदावानलसे ) जलता रहा । परन्तु जब मैं चित्रकूट गया , ( अज्ञानजनित दुःखदावानलसे ) जलता रहा । परन्तु जब मैं चित्रकूट गया , ( और वहाँ आपका प्रेमपूर्वक भजन करने लगा ) तब ( आपकी कृपासे ) मैं इस कलिकी सारी कुचालें तो समझ गया ( तथापि ) अब मैं अपने ही डरसे डर रहा हूँ ॥३॥

मैं हाथ जोड़कर प्रभुके सामने खड़ा हुआ मस्तक नवाकर कह रहा हूँ कि पहचाना हुआ चोर फिर जीवको ( प्रायः ) मार ही डालता है ; ( कलियुग पहचाना हुआ चोर है , वह दाँव देख रहा है ) इस बातको सुनकर तुलसी अपने स्वामीसे विनय करके निश्चित हो चुका ( अब आप स्वयं ही उचित समझकर उपाय कीजिये ) ॥४॥

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Last Updated : November 13, 2010

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