कबहुँ समय सुधि द्यायबी, मेरी मातु जानकी ।
जन कहाइ नाम लेत हौं, किये पन चातक ज्यों, प्यास प्रेम - पानकी ॥१॥
सरल कहाई प्रकृति आपु जानिए करुना - निधानकी ।
निजगुन, अरिकृत अनहितौ, दास - दोष सुरति चित रहत न दिये दानकी ॥२॥
बानि बिसारनसील है मानद अमानकी ।
तुलसीदास न बिसारिये, मन करम बचन जाके, सपनेहुँ गति न आनकी ॥३॥
भावार्थः-- हे जानकी माता ! कभी मौका पाकर श्रीरामचन्द्रजीको मेरी याद दिला देना । मैं उन्हींका दास कहाता हूँ, उन्हींका नाम लेता हूँ, उन्हींके लिये पपीहेकी तरह प्रण किये बैठा हूँ, मुझे उनके स्वाती - जलरुपी प्रेमरसकी बड़ी प्यास लग रही है ॥१॥
यह तो आप जानती ही हैं कि करुणा - निधान रामजीका स्वभाव बड़ा सरल हैं; उन्हें अपना गुण, शत्रुद्वारा किया हुआ अनिष्ट, दासका अपराध और दिये हुए दानकी बात कभी याद ही नहीं रहती ॥२॥
उनकी आदत भूल जानेकी है; जिसका कहीं मान नहीं होता, उसको वह मान दिया करते हैं; पर वह भी भूल जाते हैं ! हे माता ! तुम उनसे कहना कि तुलसीदासको न भूलिये, क्योंकि उसे मन, वचन और कर्मसे स्वप्नमें भी किसी दूसरेका आश्रय नहीं है ॥३॥