कस न करहु करुना हरे ! दुखहरन मुरारि !
त्रिबिधताप - संदेह - सोक - संसय - भय - हारि ॥१॥
इक कलिकाल - जनित मल, मतिमंद, मलिन - मन ।
तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन ॥२॥
सब प्रकार समरथ प्रभो, मैं सब बिधि दीन ।
यह जिय जानि द्रवौ नहीं, मैं करम बिहीन ॥३॥
भ्रमत अनेक जोनि, रघुपति, पति आन न मोरे ।
दुख - सुख सहौं, रहौं सदा सरनागत तोरे ॥४॥
तो सम देव न कोउ कृपालु, समुझौं मनमाहीं ।
तुलसिदास हरि तोषिये, सो साधन नाहीं ॥५॥
भावार्थः- हे हरे ! हे मुरारे ! आप दुःखोंके हरण करनेवाले हैं, फिर मुझपर दया क्यों नहीं करते ? आप दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकारके तापोंके और सन्देह, शोक, अज्ञान तथा भयके नाश करनेवाले हैं । ( मेरे भी दुःख, ताप और अज्ञान आदिका नाश कीजिये ) ॥१॥
एक तो कलिकालसे उत्पन्न होनेवाले पापोंसे मेरी बुद्धि मन्द पड़ गयी है और मन मलिन हो गया है, तिसपर फिर हे स्वामी ! आप भी मेरी सँभाल नहीं करते ? तब इस दासका जीवन कैसे निभेगा ? ॥२॥
हे प्रभो ! आप तो सब प्रकारसे समर्थ हैं और मैं सब प्रकारसे दीन हूँ । यह जानकर भी आप मुझपर कृपा नहीं करते, इससे मालूम होता है कि मैं भाग्यहीन ही हूँ ॥३॥
हे रघुनाथजी ! मैं अनेक योनियोंमें भटके आया हूँ; परन्तु आपके सिवा मेरे दूसरा कोई स्वामी नहीं हैं । दुःख सुख सहता हुआ भी मैं सदा आपकी ही शरण हूँ ॥४॥
मैं अपने मनमें तो इस बातको खूब समझता हूँ कि आपने समान दूसरा कोई भी दयालु देव नहीं है, परन्तु हे हरे ! आपको प्रसन्न करनेवाले साधन इस तुलसीदासके पास नहीं हैं । ( बिना ही साधन केवल शरणागतिसे ही आपको प्रसन्न होगा पड़ेगा ) ॥५॥