मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई ।
जनम जनम अभ्यास - निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥१॥
नयन मलिन परनारि निरखि, मन मलिन बिषय सँग लागे ।
हदय मलिन बासना - मान - मद, जीव सहज सुख त्यागे ॥२॥
परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, बचन दोष पर गाये ।
सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ - चरन बिसराये ॥३॥
तुलसिदास ब्रत - दान, ग्यान - तप, सुद्धिहेतु श्रुति गावै ।
राम - चरन - अनुराग - नीर बिनु मल अति नास न पावै ॥४॥
भावार्थः-- मोहसे उत्पन्न जो अनेक प्रकारका ( पापरुपी ) मल लगा हुआ है, वह करोड़ों उपायोंसे भी नहीं छूटता । अनेक जन्मोंसे यह मन पापमें लगे रहनेका अभ्यासी हो रहा है, इसलिये यह मल अधिकाधिक लिपटता ही चला जाता है ॥१॥
पर - स्त्रियोंकी ओर देखनेसे नेत्र मलिन हो गये हैं, विषयोंका संग करनेसे मन मलिन हो गया है और वासना, अहंकार तथा गर्वसे हदय मलिन हो गया है तथा सुखरुप स्व - स्वरुपके त्यागसे जीव मलिन हो गया है ॥२॥
परनिन्दा सुनते - सुनते कान और दूसरोंका दोष कहते - कहते वचन मलिन हो गये हैं । अपने नाथ श्रीरामजीके चरणोंको भूल जानेसे ही यह मलका भार सब प्रकारसे मेरे पीछे लगा फिरता है ॥३॥
इस पापके धुलनेके लिये वेद तो व्रत, दान, ज्ञान, तप आदि अनेक उपाय बतलाता है; परंतु हे तुलसीदास ! श्रीरामके चरणोंके प्रेमरुपी जल बिना इस पापरुपी मलका समूल नाश नहीं हो सकता ॥४॥