जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
काको नाम पतित - पावन जग, केहि अति दिन पियारे ॥१॥
कौने देव बराइ बिरद - हित, हठि हठि अधम उधारै ।
खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ॥२॥
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब, माया - बिबस बिचारे ।
तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ॥३॥
भावार्थः- हे नाथ ! आपके चरणोंको छोड़कर और कहाँ जाऊँ ? संसारमें ' पतित - पावन ' नाम और किसका है ? ( आपकी भाँति ) दीनदुःखियारे किसे बहुत प्यारे हैं ? ॥१॥
आजतक किस देवताने अपने बानेको रखनेके लिये हठपूर्वक चुन - चुनकर नीचोंका उद्धार किया है ? किस देवताने पक्षी ( जटायु ), पशु ( ऋक्ष - वानर आदि ), व्याध ( वाल्मीकि ), पत्थर ( अहल्या ), जड वृक्ष ( यमलार्जुन ) और यवनोंका उद्धार किया है ? ॥२॥
देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मनुष्य आदि सभी बेचारे मायाके वश हैं । ( स्वयं बँधा हुआ दूसरोंके बन्धनको कैसे खोल सकता है इसलिये ) हे प्रभो ! यह तुलसीदास अपनेको उन लोगोंके हाथोंमें सौंपकर क्या करे ? ॥३॥