कलि नाम कामतरु रामको ।
दलनिहार दारिद दुकाल दुख , दोष घोर घन घामको ॥१॥
नाम लेत दाहिनो होत मन , बाम बिधाता बामको ।
कहत मुनीस महेस महातम , उलटे सूधे नामको ॥२॥
भलो लोक - परलोक तासु जाके बल ललित - ललामको ।
तुलसी जग जानियत नामते सोच न कूच मुकामको ॥३॥
भावार्थः - कलियुगमें श्रीराम - नाम ही कल्पवृक्ष है । क्योंकि वह दारिद्र्य , दुर्भिक्ष , दुःख , दोष और घनघटा ( अज्ञान ) तथा कड़ी धूप ( विषय - विलास ) - नाश करनेवाला है ॥१॥
राम - नाम लेते ही प्रतिकूल विधाताका प्रतिकूल मन भी अनुकूल हो जाता है । मुनीश्वर वाल्मीकिने उलटे अर्थात् ' मरा - मरा ' नामकी महिमा गायी है और शिवजीने सीधे राम - नामका माहात्म्य बताया है । तात्पर्य यह है कि उलटा नाम जपते - जपते वाल्मीकि व्याधसे ब्रह्मर्षि हो गये और शिवजी सीधा नाम जपनेसे हलाहल विषका पान कर गये तथा स्वयं भगवत्स्वरुप माने गये ॥२॥
जिसे इस परम सुन्दर राम - नामका बल है , उसके लोक और परलोक दोनों ही सुखमय हैं । हे तुलसी ! राम - नामका बल होनेपर न तो इस संसारसे जानेमें सोच प्रतीत हो ता है और न यहाँ रहनेमें ही । भाव यह है कि उसके लिये परमानन्दमें मग्न रहनेके कारण जीवन - मरण समान हो जाते हैं ॥३॥