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विनयावली ३४

विनय पत्रिका - विनयावली ३४

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


जानकी - जीवनकी बलि जैहौं ।

चित कहै रामसीय - पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहौं ॥१॥

उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु - पद - बिमुख न पैहौं ।

मन समेत या तनके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहौं ॥२॥

श्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहौं ।

रोकिहौं नयन बिलोकत औरहिं, सीस ईस ही नैहौं ॥३॥

नातो - नेह नाथसों करि सब नातो - नेह बहैहौं ।

यह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहौं ॥४॥

भावार्थः-- मैं तो श्रीजानकी - जीवन रघुनाथजीपर अपनेको न्योछावर कर दूँगा । मेरा मन यही कहता है कि अब मैं श्रीसीता - रामजीके चरणोंको छोड़कर दूसरी जगह कहीं भी नहीं जाऊँगा ॥१॥

मेरे हदयमें ऐसा विश्वास उत्पन्न हो गया है कि अपने स्वामी श्रीरामजीके चरणोंसे विमुख होकर मैं स्वप्नमें भी कहीं सुख नहीं पा सकूँगा । इससे मैं मनको तथा इस शरीरमें रहनेवाले ( इन्द्रियादि ) सभीको यही उपदेश दूँगा ॥२॥

कानोंसे दूसरी बात नहीं सुनूँगा, जीभसे दूसरेकी चर्चा नहीं करुँगा, नेत्रोंको दूसरी ओर ताकनेसे रोक लूँगा और यह मस्तक केवल भगवानको ही झुकाऊँगा ॥३॥

अब प्रभुके साथ नाता और प्रेम करके दूसरे सबसे नाता और प्रेम तोड़ दूँगा । इस संसारमें मैं तुलसीदास जिसका दास कहाउँगा फिर अपने सारे कर्मोंका बोझा भी उसी स्वामीपर रहेगा ॥४॥

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Last Updated : September 11, 2009

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