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विनयावली १२१

विनय पत्रिका - विनयावली १२१

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


एक सनेही साचिलो केवल कोसलपालु ।

प्रेम - कनोड़ो रामसो नहिं दूसरो दयालु ॥१॥

तन - साथी सब स्वारथी , सुर ब्यवहार - सुजान ।

आरत - अधम - अनाथ हित को रघुबीर समान ॥२॥

नाद निठुर , समचर सिखे , सलिल सनेह न सूर ।

ससि सरोग , दिनकरु बड़े , पयद प्रेम - पथ कूर ॥३॥

जाको मन जासों बँध्यो , ताको सुखदायक सोइ ।

सरल सील साहिब सदा सीतापति सरिस न कोइ ॥४॥

सुनि सेवा सही को करै , परिहरै को दूषन देखि ।

केहि दिवान दिन दिन को आदर - अनुराग बिसेखि ॥५॥

खग - सबरी पितु - मातु ज्यों माने , कपि को किये मीत ।

केवट भेंट्यो भरत ज्यों , ऐसो को कहु पतित - पुनीत ॥६॥

देइ अभागहिं भागु को , को राखै सरन सभीत ।

बेद - बिदित बिरुदावली , कबि - कोबिद गावत गीत ॥७॥

कैसेउ पाँवर पातकी , जेहि लई नामकी ओट ।

गाँठी बाँध्यो दाम तो , परख्यो न फेरि खर - खोट ॥८॥

मन - मलीन , कलि किलबिषी होत सुनत जासु कृत - काज ।

सो तुलसी कियो आपुनो रघुबीर गरीब - निवाज ॥९॥

भावार्थः - सच्चे स्नेही तो केवल एक कोशलेन्द्र श्रीरामचन्द्रजी ही हैं । प्रेमका कृतज्ञ रामजीके समान कोई दूसरा दयालु नहीं है ॥१॥

इस शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी स्वार्थी हैं , देवता व्यवहारमें चतुर हैं ( जितनी सेवा करोगे , उतना ही फल देंगे और यदि कुछ बिगड़ गया , तो सारा किया कराया व्यर्थ कर देंगे ) । दुःखी , नीच और अनाथका हित करनेवाला श्रीरघुनाथजीके समान दूसरा कौन है ? ( कोई भी नहीं ) ॥२॥

( अब प्रेमियोंकी दशा देखिये ) राग अथवा संगीतका स्वर निर्दय होता है ( उसीके कारण बेचारा हिरण जालमें फँसकर मारा जाता है ) । अग्नि सबके साथ समान व्यवहार करनेवाली है , ( बेचारे पतंगको उसीमें पड़कर भस्म होना पड़ता है ) जल भी प्रेमके निबाहनेमें वीर नहीं है ( मछली तो उसके बिना क्षणभर भी जीवित नहीं रहती , पर वह ऐसा है कि उसको मछलीके बिना कोई दुःख नहीं होता ) । चन्द्रमा ( आजन्म ) रोगी है ( उसका प्रेमी चकोर तो उसपर मुग्ध होकर अंगारे चुगता है , किन्तु चन्द्रमा उसपर तनिक भी तरस नहीं खाता ) । सूर्य बड़प्पनमें भूल रहा है ( कमलकी तो कली - कली उसे देखकर खिल उठती है , पर वह उसे नीच समझकर क्षणभरमें ही सुखा डालता है ) और मेघ तो प्रेम - पथके लिये बड़ा ही निर्दय है ( बेचारे चातकको तरसाता ही नहीं , उसपर गरज - गरजकर ओले बरसाता है और बिजली गिरात है ) ॥३॥

( पर क्या किया जाय ) जिसका मन जिससे बँध गया , उसके लिये वही सुख देनेवाला होता है । ( दुःखको भी सुख मान लेता है ); किन्तु ( मेरी दृष्टिमें ) श्रीरघुनाथजी - सरीखा सरल , सुशील स्वामी दूसरा नहीं है ॥४॥

सेवा सुनते ही उसपर ' सही ' कर देनेवाला - सेवा मान लेनेवाला दूसरा कौन है ? और अपराध देखकर भी उनपर कौन खयाल नहीं करता ? किसके दरबारमें दीनोंका सम्मान विशेष प्रेमसे किया जाता है ॥५॥

पक्षी ( जटायु ) और शबरीको किसने पिता और माताके समान माना ? बंदरों ( सुग्रीव आदि ) - को किसने अपना मित्र बनाया ? गुह निषादसे जो अपने सगे भाई भरतकी तरह हदयसे लगाकर मिले , भला बताओ तो , पापियोंको पवित्र करनेवाला ऐसा दूसरा कौन है ? ( कोई नहीं ) ॥६॥

अभागेको कौन भाग्यवान बनाता है ? डरे हुओंको कौन अपनी शरणमें रखता है ? वेदोंमें किसकी यश गाथा गायी जा रही है और कवि एवं विद्वान् किसके गीत गा रहे हैं ? ( भगवान रामचन्द्र ही एक ऐसे दीनबन्धु भक्तवत्सल हैं ) ॥७॥

जिसने उनके नाम ( राम ) - आश्रय लिया , चाहे वह कैसा ही नीच और पापी क्यों न हो , उसे श्रीरामने इस तरह अपना लिया , जैसे कोई ( मिले हुए ) धनको ( तुरंत ) गाँठमें बाँध लेता है , और उसके खरे या खोटेपनको भी नहीं परखता ॥८॥

जो ऐसा मलिन मनवाला है कि जिसके कलियुगमें किये हुए कर्मोंको सुनकर सुननेवाले भी पापी हो जाते हैं , उस तुलसीदासको भी उन्होंने अपना दास मान लिया । श्रीरघुनाथजी ऐसे ही गरीबनिवाज हैं ॥९॥

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Last Updated : November 11, 2010

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