तो सों प्रभु जो पै कहुँ कोउ होतो ।
तो सहि निपट निरादर निसिदिन , रटि लटि ऐसो घटि को तो ॥१॥
कृपा - सुधा - जलदान माँगिबो कहौं सो साँच निसोतो ।
स्वाति - सनेह - सलिल - सुख चाहत चित - चातक सो पोतो ॥२॥
काल - करम - बस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कुछ भो तो ।
ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो ॥३॥
जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो ।
तेरे राज राय दशरथके , लयो बयो बिनु जोतो ॥४॥
भावार्थः - यदि तुझ - सरीखा कहीं कोई दूसरा समर्थ स्वामी होता , तो भला ऐसा कौन क्षुद्र था , जो निपट ही निरादर सहकर एवं दिन - रात तेरा नाम रट - रटकर दुबला होता ? ॥१॥
मैं जो तुझसे कृपारुपी अमृतजल माँग रहा हूँ , वह सचमुच ही निराला है । मेरा चित्तरुपी चातकका बच्चा प्रेमरुपी स्वाति - नक्षत्रका आनन्दरुपी जल चाहता है ॥२॥
काल तथा कर्मके प्रभावसे यदि कभी - कभी मनमें कोई बुरी कामना आ जाती है , ( जिससे तेरी ओरसे चित्त हटने लगता है ) तो वह ऐसा ही है , जैसे आनन्दसे जलमें रहती हुई मछली कभी - कभी उछलकर फिर घबराकर उसीमें गोता लगा जाती है , ( जैसे मछलीको क्षणभरका भी जलका वियोग सहन नहीं होता , वैसे ही मेरा चित्त - चातक तेरे प्रेमजलसे अलग होनेपर घबरा जाता है , और फिर तेरे ही लिये चेष्टा करता है ) ॥३॥
( परन्तु ऐसा कहना भी नही बनता क्योंकि ) तुलसीदासके हदयमें जितना कपट है , उतना किस प्रकार कहा जा सकता है ? पर हे दशरथ - दुलारे ! तेरे राज्यमें लोगोंने बिना ही जोते - बोये पाया है । अर्थात् बिना ही सत्कर्म किये केवल तेरे नामसे ही अनेक पापी तर गये हैं , वैसे ही मैं भी तर जाऊँगा , यही विश्वास है ॥४॥