कहाँ जाउँ , कासों कहौं , कौन सुनै दीनकी ।
त्रिभुवन तुही गति सब अंगहीनकी ॥१॥
जग जगदीस घर घरनि घनेरे हैं ।
निराधारके अधार गुनगन तेरे हैं ॥२॥
गजराज - काज खगराज तजि धायो को ।
मोसे दोस - कोस पोसे , तोसे माय जायो को ॥३॥
मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके ।
किये बहुमोल तैं करैया गीध - श्राधके ॥४॥
तुलसीकी तेरे ही बनाये , बलि , बनैगी ।
प्रभुकी बिलंब - अंब दोष - दुख जनैगी ॥५॥
भावार्थः - कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ? कौन इस ( साधनरुपी धनसे हीन ) दीनकी सुनेगा ? मुझ - सरीखे सब तरहसे साधनहीनकी गति तो तीनों लोकोंमें एकमात्र तू ही है ॥१॥
यों तो दुनियामें घर - घर ' जगदीश ' भरे हैं ( सभी अपनेको ईश्वर कहते हैं ) पर जिसके कोई आधार नहीं उसके लिये तो एक तेरे गुणसमूहका ( गान ) ही अधार है । भाव यह कि तेरे ही गुणोंका गान कर वह संसार - सागरको पार करता है ॥२॥
गजराजको छुड़ानेके लिये गरुड़को छोड़कर कौन दौड़ा था ? जिसने मुझ - जैसे पापोंके भण्डारका भी पालन - पोषण किया , ऐसा एक तुझे छोड़कर और किसको किस माताने जना है ? ॥३॥
मुझ - जैसे क्रूर , कायर , कुपूत और आधी कौड़ीकी कीमतवालोंको भी , है जटायुके श्राद्ध करनेवाले ! तूने बहुमूल्य बना दिया ॥४॥
बलिहारी ! तुलसीकी ( बिगड़ी हुई ) बात तेरे ही बनाये बन सकेगी । यदि तूने मेरा उद्धार करनेमें देर की , तो फिर वह देररुपी माता दुःख और दोषरुषी सन्तान ही जनेगी । भाव यह कि तू कृपा करके शीघ्र उद्धार न करेगा तो मैं पाप और दुःखोंसे ही घिर जाऊँगा ॥५॥