देव
दीन - उद्धरण रघुवर्य करुणाभवन शमन - संताप पापौघहारी ।
विमल विज्ञान - विग्रह, अनुग्रहरुप, भूपवर, विबुध, नर्मद, खरारी ॥१॥
संसार - कांतार अति घोर, गंभीर, घन, गहन तरुकर्मसंकुल, मुरारी ।
वासना वल्लि खर - कंटकाकुल विपुल, निबिड़ विटपाटवी कठिन भारी ॥२॥
विविध चित्तवृत्ति - खग निकर श्येनोलूक, काक वक गृध्र आमिष - अहारी ।
अखिल खल, निपुण छल, छिद्र निरखत सदा, जीवजनपथिकमन - खेदकारी ॥३॥
कोध करिमत्त, मृगराज, कंदर्प, मद - दर्प वृक - भालु अति उग्रकर्मा ।
महिष मत्सर क्रूर, लोभ शूकररुप, फेरु छल, दंभ मार्जारधर्मा ॥४॥
कपट मर्कट विकट, व्याघ्र पाखण्डमुख, दुखद मृगव्रात, उत्पातकर्ता ।
हदय अवलोकि यह शोक शरणागतं, पाहि मां पाहि भो विश्वभर्त्ता ॥५॥
प्रबल अहँकार दुरघट महीधर, महोमाह गिरि - गुहा निबिड़ांधकारं ।
चित्त वेताल, मनुजाद मन, प्रेतगन रोग, भोगौघ वृश्चिक - विकारं ॥६॥
विषय - सुख - लालसा दंश - मशकादि, खल झिल्लि रुपादि सब सर्प, स्वामी ।
तत्र आक्षिप्त तव विषम माया नाथ, अंध मैं मंद, व्यालादगामी ॥७॥
घोर अवगाह भव आपगा पापजलपूर, दुष्प्रेक्ष्य, दुस्तर, अपारा ।
मकर षडवर्ग, गो नक्र चक्राकुला, कूल शुभ - अशुभ, दुख तीव्र धारा ॥८॥
सकल संघट पोच शोचवश सर्वदा दासतुलसी विषम गहनग्रस्तं ।
त्राहि रघुवंशभूषण कृपा कर, कठिन काल विकराल - कलित्रास - त्रस्तं ॥९॥
भावार्थः- हे श्रीरामजी ! आप दीनोंका उद्धार करनेवाले, रघुकुलमें श्रेष्ठ, करुणाके स्थान, सन्तापका नाश करनेवाले और पापोंके समूहके हरनेवाले हैं । आप निर्विकार, विज्ञान - स्वरुप, कृपा - मूर्ति, राजाओंमें शिरोमणि, देवताओंको सुख देनेवाले तथा खर नामक दैत्यके शत्रु हैं ॥१॥
हे मुरारे ! यह संसाररुपी वन बड़ा ही भयानक और गहरा हैं; इसमें कर्मरुपी वृक्ष बड़ी ही सघनतासे लगे हैं, वासनारुपी लताएँ लिपट रही हैं और व्याकुलतारुपी अनेक पैने काँटे बिछ रहे हैं । इस प्रकार यह सघन वृक्षसमूहोंका महाघोर वन है ॥२॥
इस वनमें, चित्तकी जो अनेक प्रकारकी वृत्तियाँ हैं, सो मांसाहारी बाज, उल्लू, काक, बगुले और गिद्ध आदि पक्षियोंका समूह है । ये सभी बड़े दुष्ट और छल करनेमें निपुण हैं । कोई छिद्र देखते ही यह जीवरुपी यात्रियोंके मनको सदा दुःख दिया करते हैं ॥३॥
इस संसार - वनमें क्रोधरुपी मतवाला हाथी, कामरुपी सिंह, मदरुपी भेड़िया और गर्वरुपी रीछ है, ये सभी बड़े निर्दय हैं । इनके सिवा यहाँ मत्सररुपी क्रूर भैंसा, लोभरुपी शूकर, छलरुपी गीदड़ और दम्भरुपी बिलाव भी हैं ॥४॥
यहाँ कपटरुपी विकट बंदर और पाखण्डरुपी बाघ हैं, जो संतरुपी मृगोंको सदा दुःख दिया करते और उपद्रव मचाया करते हैं । हे विश्वम्भर ! हदयमें यह शोक देखकर मैं आपकी शरण आया हूँ, हे नाथ ! आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥५।
इस संसार - वनमें ( इन जीव - जन्तुओंसे बच जानेपर भी आगे और विपद है ) अहंकाररुपी बड़ा विशाल पर्वत हैं, जो सहजमें लाँघा नहीं जा सकता । इस पर्वतमें महामोहरुपी गुफा है जिसके अंदर घना अन्धकार है । यहाँ चित्तरुपी बेताल, मनरुपी मनुष्य - भक्षक राक्षस, रोगरुपी भूत - प्रेतगण और भोग - विलासरुपी बिच्छुओंका जहर फैला हुआ है ॥६॥
यहाँ विषय - सुखकी लालसारुपी मक्खियाँ और मच्छर हैं, दुष्ट मनुष्यरुपी झिल्ली है, और हे स्वामी ! रुप, रस, गन्ध, शब्द स्पर्श विषयरुपी सर्प हैं । हे नाथ ! आपकी कठिन मायाने मुझ मूर्खको यहाँ लाकर पटक दिया है । हे गरुड़गामी ! मैं तो अन्धा हूँ, अर्थात् ज्ञाननेत्र - विहीन हूँ ॥७॥
इस संसार - वनमें बहनेवाली वासनारुपी भव - नदी बड़ी ही भयंकर और अथाह है, जिसमें पापरुपी जल भरा हुआ है, जिसकी और देखना सहन नहीं, इसका पार करना बहुत ही कठिन हैं; क्योंकि यह अपार है । इसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सररुपी छः मगर हैं, इन्द्रियरुपी घड़ियाल और भँवर भरे पड़े हैं । शुभ - अशुभ कर्मरुपी इसके दो तीर हैं, इसमें दुःखोंकी तीव्र धारा बह रही हैं ॥८॥
हे रघुवंशभूषण ! इन सब नीचोंके दलने मुझे पकड़ रखा है, यह आपका दास तुलसी सदा चिन्ताके वश रहता है । इस कराल कलिकालके भयसे डरे हुए मुझको आप कृपा करके बचाइये ॥९॥