तौ तू पछितैहै मन मींजि हाथ ।
भयो है सुगम तोको अमर - अगम तन, समुझिधौं कत खोवत अकाथ ॥१॥
सुख - साधन हरिबिमुख बृथा जैसे श्रम फल घृतहित मथे पाथ ।
यह बिचारि, तजि कुपथ - कुसंगति चलि सुपंथ मिलि भले साथ ॥२॥
देखु राम - सेवक, सुनि कीरति, रटहि नाम करि गान गाथ ।
हदय आनु धनुबान - पानि प्रभु, लसे मुनिपट, कटि कसे भाथ ॥३॥
तुलसिदास परिहरि प्रपंच सब, नाउ रामपद - कमल माथ ।
जनि डरपहि तोसे अनेक खल, अपनाये जानकीनाथ ॥४॥
भावार्थः- हे मन ! तुझे हाथ मल मलकर पछताना पड़ेगा । अरे ! जो मनुष्य - शरीर देवताओंको दुर्लभ है, वही तुझको सहजमें मिल गया है, तू तनिक विचार तो कर; उसे व्यर्थ क्यों खो रहा है ? ॥१॥
हरिसे विमुख होनेपर सुखका साधन वैसे ही व्यर्थ है जैसे घी निकालनेके लिये पानीके मथनेका परिश्रम । ( सुख हरिमें है, उसको भूलकर सुखरहित विषयोंकी सेवासे सुख कभी नहीं मिल सकता ) यह विचारकर बुरा मार्ग और बुरोंकी संगति छोड़ दे तथा सन्मार्गपर चलता हुआ सज्जनोंका संग कर ॥२॥
श्रीराम - भक्तोंके दर्शन कर, उनसे हरि - कथा सुन, राम - नामको रट और रामकी गुण - गाथाओंका गान कर और हाथमें धनुष - बाण लिये, मुनियोंके वस्त्र पहने एवं कमरमें तरकस कसे हुए प्रभु श्रीरामजीका हदयमें ध्यान कर ॥३॥
हे तुलसीदास ! संसारके सारे प्रपंचोंको छोड़कर श्रीरामजीके चरण - कमलोंमें मस्तक नवा । डर मत, तेरे जैसे अनेक नीचोंको श्रीजानकीनाथ रामजीने अपना लिया है ॥४॥