जो मन भज्यो चहै हरि - सुरतरु ।
तौ तज बिषय - बिकार , सार भज , अजहूँ जो मैं कहौं सोइ करु ॥१॥
सम , संतोष , बिचार बिमल अति , सतसंगति , ये चारि दृढ़ करि धरु ।
काम - क्रोध अरु लोभ - मोह - मद , राग - द्वेष निसेष करि परिहरु ॥२॥
श्रवन कथा , मुख नाम , हदय हरि , सिर प्रनाम , सेवा कर अनुसरु ।
नयननि निरखि कृपा - समुद्र हरि अग - जग - रुप भूप सीताबरु ॥३॥
इहै भगाति , बैराग्य - ग्यान यह , हरि - तोषन यह सुभ ब्रत आचरु ।
तुलसिदास सिव - मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँ नाहिंन डरु ॥४॥
भावार्थः - हे मन ! यदि तू भगवद - रुपी कल्पवृक्षका सेवन करना चाहता है , तो विषयोंके विकारको छोड़कर साररुप श्रीराम - नामका भजन कर और जो मैं कहता हूँ उसे अब भी कर ( अभीतक कुछ बिगड़ा नहीं ) ॥१॥
समता , सन्तोष , निर्मल विवेक और सत्संग - इन चारोंको दृढ़तापूर्वक धारण कर । काम , क्रोध , लोभ , मोह , अभिमान एवं राग और द्वेषको बिलकुल ही छोड़ दे , इनका लेशमात्र भी न रहे ॥२॥
कानोंसे भगवत्कथा सुन , मुखसे ( राम ) नाम जपा कर , हदयमें श्रीहरिका ध्यान किया कर , मस्तकसे प्रणाम तथा हाथोंसे भगवानकी सेवा किया कर । नेत्रोंसे कृपासागर चराचर विश्वमय महाराज जानकीवल्लभ रामचन्द्रजीके दर्शन किया कर ॥३॥
यही भक्ति है , यही वैराग्य है , यही ज्ञान है और इसीसे भगवान् प्रसन्न होते हैं , अतएव तू इसी शुभ व्रतका आचरण कर । हे तुलसीदास ! यही शिवजीका बतलाया हुआ मार्ग हैं । इस ( कल्याणमय ) मार्गपर चलनेसे स्वप्नमें भी भय नहीं रहता ( मनुष्य परमात्माको प्राप्त कर अभय हो जाता है ) ॥४॥