मारुति - मन , रुचि भरतकी लखि लषन कही है ।
कलिकालहु नाथ ! नाम सों परतीति - प्रीति एक किंकरकी निबही है ॥१॥
सकल सभा सुनि लै उठी , जानी रीति रही है ।
कृपा गरीब निवाजकी , देखत गरीबको साहब बाँह गही है ॥२॥
बिहँसि राम कह्यो ' सत्य है , सुधि मैं हूँ लही हैं ' ।
मुदित माथ नावत , बनी तुलसी अनाथकी , परी रघुनाथ सही है ॥३॥
रघुनाथ हाथ
प्रसंगः - भगवान् श्रीरामका दिव्य दरबार लगा है , प्रभु जगज्जननी श्रीजानकीजीके सहित अलौलिक रत्नजटित राज्यसिंहासनपर विराजमान हैं । हनुमानजी प्रेममग्न हुए नाथकी ओर अनन्य दृष्टिसे निहारते हुए चरण दबा रहे हैं । भरतजी , लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजी अपने - अपने अधिकारानुसार सेवामें संलग्न है । उसी समय तुलसीदासजीकी ' विनय - पत्रिका ' पहुँची । तुलसीदासजीकी प्रार्थना सबको याद थी । भक्त - प्रिय मारुति श्रीहनुमान् और भरतने धीरेसे लक्ष्मणसे कहा कि बड़ा अच्छा मौका है , इस समय तुलसीदासकी बात छेड़ देनी चाहिये । लक्ष्मणजीने उनकी रुक देखकर प्रभुकी सेवामें ' विनय - पत्रिका ' पेश कर दी ।
भावार्थः - हनुमानजी और भरतजीका मन और उनकी रुचिको देखकर लक्ष्मणजीने भगवानसे कहा कि हे नाथ ! कलियुगमें भी आपके एक दासकी आपके नामसे प्रीति और प्रतीति निभ गयी ( देखिये , उसकी यह सच्ची विनय - पत्रिका भी आयी है ) ॥१॥
इस बातको सुनकर सारी सभा एकमतसे कह उठी कि हाँ , यह बात सर्वथा सत्य है , हमलोग भी उसकी रीति जानते हैं । गरीब - निवाज भगवान् श्रीरामजीकी उसपर ( बड़ी ) कृपा है । स्वामीने सबके देखते - देखते उस गरीबकी बाँह पकड़कर उसे अपना लिया है ॥२॥
सबकी बात सुनकर श्रीरामजीने मुसकारकर कहा कि हाँ , यह सत्य है , मुझे भी उसकी खबर मिल गयी है । ( श्रीजानकनन्दिनीजी कई बार कह चुकी होंगी , क्योंकि गोसाईंजी पहले उनसे प्रार्थना कर चुके हैं । ) बस , फिर क्या था - अनाथ , तुलसीकी रची हुई विनय - पत्रिकापर रघुनाथजीने अपने हाथसे ' सही ' कर दी । अपनी बात बननेपर मैंने भी परम प्रसन्न होकर भगवानके चरणोममें सिर टेक दिया ( सदाके लिये शरण हो गया ) ॥३॥
श्रीसीतारामार्पणमस्तु