रुचिर रसना तू राम राम राम क्यों न रटत ।
सुमिरत सुख - सुकृत बढ़त, अघ - अमंगल घटत ॥१॥
बिनु श्रम कलि - कलुषजाल कटु कराल कटत ।
दिनकरके उदय जैसे तिमिर - तोम फटत ॥२॥
जोग, जाग, जप, बिराग, तप, सुतीरथ - अटत ।
बाँधिबेको भव - गयंद रेनुकी रजु बटत ॥३॥
परिहरि सुर - मनि सुनाम, गुंजा लखि लटत ।
लालच लघु तेरो लखि, तुलसि तोहिं हटत ॥४॥
भावार्थः-- हे सुन्दर जीभ ! तू राम - राम क्यों नहीं रटती ? जिस रामनामके स्मरणसे सुख और पुण्य बढ़ते हैं तथा पाप और अशुभ घटते हैं ॥१॥
रामनामस्मरणसे बिना ही परिश्रमके, कलियुगके कटु और भयानक पापोंका जाल वैसे ही कट जाता है, जैसे सूर्यके उदय होनेसे अन्धकारका समूह फट जाता है ॥२॥
रामनामको छोड़कर योग, यज्ञ, जप, तप, वैराग्य और तीर्थाटन करना वैसा ही है जैसे संसाररुपी गजराजके बाँधनेके लिये धूलके कणोंकी रस्सी बटना; अर्थात् जैसे धूलकी रस्सीसे हाथीका बाँधना असम्भव है, वैसे ही रामनामहीन साधनोंसे मनका परमात्मामें लगना असम्भव है ॥३॥
सुन्दर रामनामरुपी चिन्तामणि छोड़, तू विषयरुपी घुँघचियोंको देखकर उनपर ललचा रही हैं, तेरा यह तुच्छ लोभ देखकर ही तुलसी तुझे फटकार रहा है ॥४॥