खोटो खरो रावरो हौं, रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो,
जानो सब ही के मनकी ।
करम - बचन - हिये, कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि
पानी परे सनकी ॥१॥
दूसरो, भरोसो नाहिं बासना उपासनाकी, बासव, बिरंचि
सुर - नर - मुनिगनकी ।
स्वारथके साथी मेरे, हाथी स्वान लेवा देई, काहू तो न पीर
रघुबीर ! दीन जनकी ॥२॥
साँप - सभा साबर लबार भये देव दिब्य, दुसह साँसति कीजै
आगे ही या तनकी ।
साँचे परौं, पाऊँ पान, पंचमें पन प्रमान, तुलसी चातक आस
राम स्यामघनकी ॥३॥
भावार्थः-- बुरा - भला जो कुछ भी हूँ सो आपका हूँ । आपकी सौंह, मैं आपके झूठ क्यों कहूँगा ? आप तो सभीके मनकी बात जानते हैं । मैं कपटसे नहीं; परंतु कर्म, वचन और हदयसे कहता हूँ कि ' मै आपका हूँ । ' यह आपकी गुलामीका हठ इतना पक्का है जैसी पानीसे भीगे हुए सनकी गाँठ ! ॥१॥
हे रामजी ! न तो मुझे दूसरेका भरोसा है और न मुझे इन्द्र, ब्रह्मा अथवा अन्य देवता, मनुष्य और मुनियोंकी उपासना करने की ही इच्छा है । आपके सिवा सभी स्वार्थके साथी हैं, जन्मभर हाथीकी तरह सेवा करनेपर कहीं कुत्ते - जैसा तुच्छ फल देते हैं । इनमेंसे किसीको भी दीनोके दुःखमें ऐसी सहानुभूति नहीं हैं, जैसी आपको है ॥२॥
हे दिव्यदेव, ' मैं आपका गुलाम हूँ ' यह बात यदि मैं झूठ कहता हूँ तो मेरे इस शरीरको अपने ही आगे ऐसा असह्य कष्ट दीजिये, जैसा साँपोंकी सभामें ( साँपको वश करनेका मन्त्र नहीं जाननेवाले ) झूठे सँपरेको मिलता है अर्थात् उस पाखण्डीको साँप काट खाते हैं । और यदि मैं सच्चा ( रामका गुलाम ) सिद्ध हो जाऊँ तो हे नाथ ! मुझे पंचोंके बीचमें सचाईका एक बीड़ा मिल जाय । क्योंकि मुझ तुलसीरुपी चातकको एक रामरुपी श्याम मेघकी ही आशा है ॥३॥