जानि पहिचानि मैं बिसारे हौं कृपानिधान !
एतो मान ढीठ हौं उलटि देत खोरि हौं ।
करत जतन जासों जोरिबे को जोगीजन ,
तासों क्योंहू जुरी , सो अभागो बैठो तोरि हौं ॥१॥
मोसो दोस - कोसको भुवन - कोस दूसरो न ,
आपनी समुझि सूझि आयो टकटोरि हौं ।
गाड़ीके स्वानकी नाईं , माया मोहकी बड़ाई
छिनहिं तजत , छिन भजत बहोरि हौं ॥२॥
बड़ो साईं - द्रोही न बराबरी मेरीको कोऊ ,
नाथकी सपथ किये कहत करोरि हौं ।
दूरि कीजै द्वारतें लबार लालची प्रपंची ,
सुधा - सो सलिल सूकरी ज्यों गहडोरिहौं ॥३॥
राखिये नीके सुधारि , नीचको डारिये मारि ,
दुहूँ ओरकी बिचारि , अब न निहोरिहौं ।
तुलसी कही है साँची रेख बार बार खाँची ,
ढील किये नाम - महिमाकी नाव बोरिहौं ॥४॥
भावार्थः - हे कृपानिधान ! मैंने जान - पहचानकर भी आपको भुला दिया है और घमंडके मारे इतना ढीठ हो गया हूँ कि उलटा आपहीपर दोष मढ़ता हूँ ( कि आप शीलसिन्धु होकर भी मुझे अपनाते नहीं हैं ) । जिससे प्रीति जोड़नेके लिये बड़े - बड़े योगी यत्न किया करते हैं , उससे ज्यों - त्यों करके कुछ प्रीति जुड़ गयी थी , पर मैं अभागा उसे भी तोड़ बैठा ॥१॥
मुझ - सरीखा पापोंका खजाना चौदहों लोकोंमें दूसरा नहीं है , अपनी समझमें मैं खूब ढूँढ़ चुका हूँ । जैसे गाड़ीके पीछे लगा हुआ कुत्ता कभी तो गाड़ीको छोड़कर इधर - उधर भाग जाता है और कभी फीर उसके साथ हो लेता है , वैसे ही मैं क्षणभरमें तो मायामोहके बड़प्पनको छोड़ बैठता हूँ और दूसरे ही क्षण फिर उसीमें रम जाता हूँ ॥२॥
मैं आपकी करोड़ों शपथ खाकर कह रहा हूँ कि स्वामीके साथ द्रोह करनेवाला मेरी बराबरीका दूसरा कोई भी नहीं है । इसलिये मुझ झूठे , लालची और ठगको दरवाजेसे हटा दीजिये , नहीं तो मैं अमृत - सरीखा जल शूकरीकी तरह गँदला कर डालूँगा ( आपका भक्त कहाकर बुरे कर्म करुँगा तो आपके निर्मल यशमें कलंक लग जायगा ) ॥३॥
( अतएव ) या तो मुझे अच्छी तरह सुधारकर ( अपनी शरणमें ) रख लीजिये , नहीं तो मुझ नीचको मार ही डालिये । बस , अब आप ही इन दोनों बातोंपर विचार कर लीजिये , अब मैं आपका निहोरा न करुँगा । तुलसीने बार - बार लकीर खींचकर सच्ची बात कह दी है । यदि आप भी देरी करेंगे , तो मैं आपके नामकी महिमारुपी नौकाको डुबा दूँगा । ( मेरी दुर्दशा देखकर लोग आपके नामका विश्वास छोड़ देंगे ) ॥४॥