दीनदयालु, दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ ताप तई हैं ।
देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सब सुख हानि भई है ॥१॥
प्रभुके बचन, बेद - बुध - सम्मत, ' मम मूरति महिदेवमई हैं ' ।
तिनकी मति रिस - राग - मोह - मद, लोभ लालची लीलि लई है ॥२॥
राज - समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है ।
नीति, प्रतीति, प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है ॥३॥
आश्रम - बरन - धरम - बिरहित जग, लोक - बेद - मरजाद गई है ।
प्रजा पतित, पाखंड - पापरत, अपने अपने रंग रई हैं ॥४॥
सांति, सत्य, सुभ, रीति गई घटि, बढ़ी कुरीति, कपट - कलई है ।
सीदत साधु, साधुता सोचति, खल बिलसत, हुलसति खलई है ॥५॥
परमारथ स्वारथ, साधन भये अफल, सफल नहिं सिद्धि सई है ।
कामधेनु - धरनी कलि - गोमर - बिबस बिकल जामति न बई हैं ॥६॥
कलि - करनी बरनिये कहाँ लौं, करत फिरत बिनु टहल टई हैं ।
तापर दाँत पीसि कर मींजत, को जानै चित कहा ठई है ॥७॥
त्यों त्यों नीच चढ़त सिर ऊपर, ज्यों ज्यों सीलबस ढील दई है ।
सरुष बरजि तरजिये तरजनी, कुम्हिलैहै कुम्हड़ेकी जई है ॥८॥
दीजै दादि देखि ना तौ बलि, मही मोद - मंगल रितई है ।
भरे भाग अनुराग लोग कहैं, राम कृपा - चितवनि चितई है ॥९॥
बिनती सुनि सानंद हेरि हँसि, करुना - बारि भूमि भिजई है ।
राम - राज भयो काज, सगुन सुभ, राजा राम जगत - बिजई है ॥१०॥
समरथ बड़ो, सुजान सुसाहब, सुकृत - सैन हारत जितई है ।
सुजन सुभाव सराहत सादर, अनायास साँसति बितई है ॥११॥
उथपे थपन, उजारि बसावन, गई बहोरि बिरद सदई है ।
तुलसी प्रभु आरत - आरतिहर, अभयबाँह केहि केहि न दई है ॥१२॥
भावार्थः हे दीनदयालु ! पाप, दारिद्र्य, दुःख और तीन प्रकारके दुःसह दैविक, दैहिक, भौतिक तापोंसे दुनिया जली जा रही है । हे भगवन् ! यह आर्त्त आपके द्वारपर पुकार रहा है, क्योंकि सभीके सब प्रकारके सुख जाते रहे हैं ॥१॥
वेद और विद्वानोंकी सम्मति है तथा प्रभुके श्रीमुखके वचन हैं कि ब्राह्मण साक्षात् मेरा ही स्वरुप हैं; पर आज उन ब्राह्मणोंकी बुद्धिको क्रोध, आसक्ति, मोह, मद और लालची लोभने निगल लिया है अर्थात् वे अपने स्वाभाविक शम - दमादि गुणोंको छोड़कर अज्ञानी, कामी, क्रोधी, घमंडी और लोभी हो गये हैं ॥२॥
इसी तरह राजसमाज ( क्षत्रिय - जाति ) करोड़ों कुचालोंसे भर गया है, वे ( मनमाने रुपमें लूटमार, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार, अनाचाररुप ) नित्य नयी कुचाले चल रहे हैं और हेतुवाद ( नास्तिकता ) ने राजनीति, ( ईश्वर और शास्त्रपर यथार्थ ) विश्वास, प्रेम, धर्मकी और कुलकी मर्यादाका ढूँढ़ढूँढ़कर नाश कर दिया है ॥३॥
संसार वर्ण और आश्रम - धर्मसे भलीभाँति विहीन हो गया है । लोक और वेद दोनोंकी मर्यादा चली गयी । न कोई लोकाचार मानता और न शास्त्रकी आज्ञा ही सुनता है । प्रजा अवनत होकर पाखण्ड और पापमें रत हो रही है । सभी अपने - अपने रंगमें रँग रहे हैं, यथेच्छाचारी हो गये हैं ॥४॥
शान्ति, सत्य और सुप्रथाएँ घत गयीं और कुप्रथाएँ बढ़ गयी हैं तथा ( सभी आचरणोंपर ) कपट ( दम्भ ) की कलई हो गयी है ( एवं दुराचार तथा छल - कपटकी बढ़ती हो रही है ) । साधुपुरुष कष्ट पाते हैं, साधुता शोकग्रस्त है, दुष्ट मौज कर रहे है और दुष्टता आनन्द मना रही है अर्थात् बगुला - भक्ति बढ़ गयी है ॥५॥
परमार्थ स्वार्थमें परिणत हो गया अर्थात् ज्ञान, भक्ति, परोपकार और धर्मके नामपर लोग धन बटोरने लगे हैं । ( विधिपूर्वक न करनेसे ) साधन निष्फल होने लगे हैं और सिद्धियाँ प्राप्त होनी बंद हो गयी है कामधेनुरुपी पृथ्वी कलियुगरुपी गोमर ( कसाई ) के हाथमें पड़कर ऐसी व्याकुल हो गयी है कि उसमें जो बोया जाता है, वह जमता ही नहीं ( जहाँ तहाँ दुर्भिक्ष पड़ रहे हैं ) ॥६॥
कलियुगकी करनी कहाँतक बखानी जाय ? यह बिना कामका काम करता फिरता है । इतनेपर भी दाँत पीस - पीसकर हाथ मल रहा है । न जाने इसके मनमें अभी क्या - क्या है ॥७॥
हे प्रभु ! ज्यों - ज्यों आप शीलवश इसे ढील दे रहे हैं, क्षमा करते जाते हैं, त्यों - ही - त्यों यह नीच सिरपर चढ़ता जाता है । जरा क्रोध करके इसे डाँट दीजिये । आपकी तरजनी देखते ही यह कुम्हड़ेकी बतियाकी तरह मुरझा जायगा ॥८॥
आपकी बलैया लेता हूँ, देखकर न्यान कीजिये, नहीं तो अब पृथ्वी आनन्द - मंगलसे शून्य हो जायगी । ऐसा कीजिये, जिसमें लोग बड़भागी होकर प्रेमपूर्वक यह कहें कि श्रीरामजीने हमें कृपादृष्टिसे देखा है ( बड़भागी वही है जिसका रामके चरणोंसे अनुराग है । यह अनुराग श्रीरामकृपासे ही प्राप्त होता है ) ॥९॥
मेरी यह विनती सुनकर श्रीरामजीने आनन्दसे मेरी ओर देखा और मुसकराकर करुणाकी ऐसी वृष्टि की जिससे सारी भूमि तर हो गयी । ( हदयका सारा स्थान शान्तिसे पूर्ण हो गया ) यमराज्य होनेसे सब काम सफल हो गये । शुभ शकुन होने लगे, क्योंकि महाराज रामचन्द्रजी जगाद्वियजी हैं ( हदयमें उनके विराजित होते ही कलियुगकी सारी सेना भाग गयी ) ॥१०॥
सर्वसमर्थ ज्ञानस्वरुप दयालु स्वामीने पुण्यरुपी सेनाको हारनेसे जिता लिया, सद्भक्त स्वभावसे ही आदरपूर्वक उनकी सराहना करते हैं कि नाथने सहज ही सारी यातनाएँ दूर कर दीं ॥११॥
( परन्तु ) आप ऐसा क्यों न करते ? आपका तो सदासे यह बाना चला आता है कि उजड़े हुएको बसाना और गयी हुई वस्तुको फिरसे दिला देना ( जैसे विभीषण और सुग्रीवको राज्यपर बिठा देना, जैसे रावणके भयसे डरे हुए देवतओंको फिरसे स्वर्गमें बसा देना ) । हे तुलसी ! दुःखियोंके दुःख दूरकर भगवानने किस - किसको अभय बाँह नहीं दी ? ॥१२॥