कह्यो न परत , बिनु कहे न रह्यो परत ,
बड़ो सुख कहत बड़े सों , बलि , दीनता ।
प्रभुकी बड़ाई बड़ी , आपनी छोटाई छोटी ,
प्रभुकी पुनीतता , आपनी पाप - पीनता ॥१॥
दुहू ओर समुझि सकुचि सहमत मन ,
सनमुख होत सुनि स्वामी - समीचीनता ।
नाथ - गुनगाथ गाये , हाथ जोरि माथ नाये ,
नीचऊ निवाजे प्रीति - रीतिकी प्रबीनता ॥२॥
एही दरबार है गरब तें सरब - हानि ,
लाभ जोग - छेमको गरीबी - मिसकीनता ।
मोटो दसकंध सो न दूबरो बिभीषण सो ,
बूझि परी रावरेकी प्रेम - पराधीनता ॥३॥
यहाँकी सयानप , अयानप सहस सम ,
सूधौ सतभाय कहे मिटति मलीनता ।
गीध - सिला - सबरीकी सुधि सब दिन किये
होइगी न साईं सों सनेह - हित - हीनता ।
सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु ,
सुमिरत होत कलिमल - छल - छीनता ।
करुनानिधान ! बरदान तुलसी चहत ,
सीतापति - भक्ति - सुरसरि - नीर - मीनता ॥५॥
भावार्थः - हे नाथ ! कुछ कहा भी नहीं जाता और कहे बिना रहा भी नहीं जाता । आपकी बलैया लेता हूँ ( यद्यपि ) बड़ोंके सामने अपनी गरीबी सुनानेमें बहुत सुख मिलता है । ( तथापि कहाँ तो ) प्रभुका महान् बड़प्पन और कहाँ मेरी छोटी - सी क्षुद्रता ; कहाँ तो प्रभुकी पवित्रता और कहाँ मेरे पापोंकी अधिकता ॥१॥
इन दोनों ओरकी बातोंपर विचार करके मन संकोचके मारे सहम जाता है ( कुछ कहनेकी हिम्मत नहीं होती , पैर पीछे पड़ने लगते हैं ), परन्तु स्वामीकी सुन्दर साधुता ( शरणागत कैसा भी दीन - हीन - मलिन हो , आप उसको आदरके साथ अपना ही लेते हैं ) - को सुनकर यह मन फिर सम्मुख जाता है । हे नाथ ! आपके गुणोंकी गाथाओंको गानेसे और हाथ जोड़कर मस्तक नवानेसे आपने नीचोंको भी निहाल कर दिया है ( यह आपके प्रेमकी रीतिकी चतुरता है ) ॥२॥
इस दरबारमें गर्वसे सर्वनाश हो जाता है और गरीबी एवं नम्रतासे ही योगक्षेमकी प्राप्ति होती है । रावण - सरीखा तो कोई प्रतापी नहीं था , और विभीषणके समान कोई दीन - दुर्बल नहीं था । परन्तु इस प्रसंगमें आपकी प्रेमकी पराधीनता ही ( स्पष्ट ) समझमें आती है । ( शरणागत दीन विभीषणको लंकाका राज्य और अपनी अनन्य भक्तिका दान कर दिया तथा रावणका सर्वनाश कर डाला ) ॥३॥
यहाँ , अर्थात् आपके दरबारमें की हुई चतुरता हजारों मूर्खताके समान है । यहाँ तो सीधे - सादे सच्चे भावसे अपना दोष स्वीकार कर लेनेसे ही सारी मलिनता मिट जाती है । यदि तू प्रतिदिन जटायु , अहल्या और शबरीकी ( स्थितिको ) याद किये रहेगा तो स्वामीके प्रति तेरा प्रेम कभी कम नहीं होगा । ( वे बेचारे सरल , अहंकारहीन शरणागत थे , इससे नाथने उन्हें सहज ही अपनाकर कृतार्थ कर दिया ) ॥४॥
आपका नाम कल्पवृक्षकी भाँति समस्त कामनाओंको पूर्ण कर देता है । नामका स्मरण करते ही कलियुगके पाप और कपट क्षीण हो जाते हैं ? । हे करुणानिधान ! तुलसी यही वरदान चाहता है कि वह सीतापति श्रीरामजीकी भक्तिरुपी गंगाजीके जलमें सदा मछलीकी तरह डूबा रहे ॥५॥