कबहूँ मन बिश्राम न मान्यो ।
निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो ॥१॥
जदपि बिषय - सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम जाल अरुझान्यो ।
तदपि न तजत मूढ़ ममताबस, जानतहूँ नहिं जान्यो ॥२॥
जनम अनेक किये नाना बिधि करम - कीच चित सान्यो ।
होइ न बिमल बिबेक - नीर बिनु, बेद पुरान बखान्यो ॥३॥
निज हित नाथ पिता गुरु हरिसों हरषि हदै नहिं आन्यो ।
तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो ॥४॥
भावार्थः-- अरे मन ! तूने कभी विश्राम नहीं लिया । अपना सहज सुखस्वरुप भूलकर दिन - रात इन्द्रियोंका खींचा हुआ जहाँ - तहाँ विषयोंमें भटक रहा है ॥१॥
यद्यपि विषयोंके संगसे तूने असह्य संकट सहे है और तू कठिन जालमें फँस गया है तो भी हे मूर्ख ! तू ममताके अधीन होकर उन्हें नहीं छोड़ता । इस प्रकार सब कुछ समझकर भी बेसमझ हो रहा है ॥२॥
अनेक जन्मोंमें नाना प्रकारके कर्म करके तू उन्हींके कीचड़में सन गया है, हे चित्त ! विवेकरुपी जल प्राप्त किये बिना यह कीचड़ कभी साफ नहीं हो सकता । ऐसा वेदपुराण कहते हैं ॥३॥
अपना कल्याण तो परम प्रभु, परम पिता और परम गुरुरुप हरिसे हैं, पर तूने उनको हुलसकर हदयमें कभी धारण नहीं किया, ( दिन - रात विषयोंके बटोरनेमें ही लगा रहा ) हे तुलसीदास ! ऐसे तालाबसे कब प्यास मिट सकती है, जिसके खोदनेमें ही सारा जीवन बीत गया ॥४॥