हे हरि ! यह भ्रमकी अधिकाई ।
देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय - संदेह न जाई ॥१॥
जो जग मृषा ताप - त्रय - अनुभव होइ कहहु केहि लेखे ।
कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे ॥२॥
सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै ।
कोटिहुँ नाव न पार साव सो, जब लगि आपु न जागै ॥३॥
अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी ।
सम - संतोष - दया - बिबेक तें, ब्यवहारी सुखकारी ॥४॥
तुलसिदास सब बिधि प्रपंच जग, जदपि झूठ श्रुति गावै ।
रघुपति - भगति, संत - संगति बिनु, को भव - त्रास नसावै ॥५॥
भावार्थः- हे हरे ! यह भ्रमकी ही अधिकता है कि देखने, सुनने, कहने और समझनेपर भी न तो संशय ( असत्य जगतको सत्य मानना ) ही जाता है और न ( एक परमात्माकी ही अखण्ड सत्ता है क्या कुछ और भी हे ऐसा ) सन्देह ही दूर होता है ॥१॥
( कोई कहे कि ) यदि संसार असत्य हैं, तो फिर तीनों तापोंका अनुभव किस कारणसे होता है ? ( संसार असत्य है तो संसारके ताप भी असत्य हैं, परन्तु तापोंका अनुभव तो सत्य प्रतीत होता है । ) ( इसका उत्तर यह है कि ) मृगतृष्णाका जल सत्य नहीं कहा जा सकता, परन्तु जबतक भ्रम हैं, तबतक वह सत्य ही दीखता है और इसी भ्रमके कारण विशेष दुःख होता है । इसी प्रकार जगतमें भी भ्रमवश दुःखोंका अनुभव होता है ॥२॥
जैसे कोई सुन्दर सेजपर सोया हुआ मनुष्य सपनेमें समुद्रमें डूबनेसे भयभीत हो रहा हो पर जबतक वह स्वयं जाग नहीं जाता, तबतक करोड़ों नौकाओंद्वारा भी वह पार नहीं जा सकता । उसी प्रकार यह जीव अज्ञाननिद्रामें अचेत हुआ संसार - सागरमें डूब रहा है, परमात्माके तत्त्वज्ञानमें जागे बिना सहस्त्रों साधनोंद्वारा भी यह दुःखोंसे मुक्त नहीं हो सकता ॥३॥
यह अत्यन्त भयानक संसार अज्ञानके कारण ही मनोरम दिखायी देता है । अवश्य ही उनके लिये यह संसार सुखकारी हो सकता है जो सम, सन्तोष, दया और विवेकसे युक्त व्यवहार करते हैं ॥४॥
हे तुलसीदास ! वेद कह रहे हैं कि यद्यपि सांसारिक प्रपंच सब प्रकारसे असत्य है, किन्तु रघुनाथजीकी भक्ति और संतोंकी संगतिके बिना किसमें सामर्थ्य हैं जो इस संसारके भीषण भयका नाश कर सके, इस भ्रमसे छुड़ा सके ॥५॥