बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय ।
सकल काम पूरन करै, जानै सब कोय ॥१॥
बेगि, बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस ।
बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस ॥२॥
प्रेम - बारि - तरपन भलो, घृत सहज सनेहु ।
संसय - समिध, अगिनि छमा, ममता - बलि देहु ॥३॥
अघ - उचाटि, मन बस करै, मारै मद मार ।
आकरषै सुख - संपदा - संतोष - बिचार ॥४॥
जिन्ह यहि भाँति भजन कियो, मिले रघुपति ताहि ।
तुलसिदास प्रभुपथ चढ्यौ, जौ लेहु निबाहि ॥५॥
भावार्थः-- महान् वीर श्रीरघुनाथजीकी आराधना करनी चाहिये, जिन्हें साधनेसे सब कुछ सिद्ध हो जाता है । वे सब इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं, इस बातको सब जानते हैं ॥१॥
इस कामको जल्दी ही करना चाहिये, देर करना उचित नहीं है । ( सदगुरुसे ) उपदेश लेकर उसी बीजमन्त्र ( राम ) का जप करना चाहिये, जिसे श्रीशिवजी जपा करते हैं ॥२॥
( मन्त्रजपके बाद हवनादिकी विधि इस प्रकार है ) प्रेमरुपी जलसे तर्पण करना चाहिये, सहज स्वाभाविक स्नेहका घी बनाना चाहिये और सन्देहरुपी समिधका क्षमारुपी अग्निमें हवन करना चाहिये तथा ममताका बलिदान करना चाहिये ॥३॥
पापोंका उच्चाटन, मनका वशीकरण, अहंकार और कामका मारण तथा सन्तोष और ज्ञानरुपी सुख - सम्पत्तिका आकर्षण करना चाहिये ॥४॥
जिसने इस प्रकारसे भजन किया, उसे श्रीरघुनाथजी मिले हैं । तुलसीदास भी इसी मार्गपर चढ़ा है, जिसे प्रभु निबाह लेंगे ॥५॥