काहे को फिरत मूढ़ मन धायो ।
तजि हरि - चरन - सरोज सुधारस , रबिकर - जल लय लायो ॥१॥
त्रिजग देव नर असुर अपर जग जोनि सकल भ्रमि आयो ।
गृह , बनिता , सुत , बंधु भये बहु , मातु - पिता जिन्ह जायो ॥२॥
जाते निरय - निकाय निरंतर , सोइ इन्ह तोहि सिखायो ।
तुव हित होइ , कटै भव - बंधन , सो मगु तोहि न बतायो ॥३॥
अजहुँ बिषय कहँ जतन करत , जद्यपि बहुबिधि डहँकायो ।
पावक - काम भोग - घृत तें सठ , कैसे परत बुझायो ॥४॥
बिषयहीन दुख , मिले बिपति अति , सुख सपनेहुँ नहिं पायो ।
उभय प्रकार प्रेत - पावक ज्यों धन दुखप्रद श्रुति गायो ॥५॥
छिन - छिन छीन होत जीवन , दुरलभ तनु बृथा गँवायो ।
तुलसिदास हरि भजहि आस तजि , काल - उरग जग खायो ॥६॥
भावार्थः - अरे मूर्ख मन ! किसलिये दौड़ा - दौड़ा फिरता है ? श्रीहरिके चरणकमलोंके अमृत - रसको छोड़कर ( विषयरुपी ) मृगतृष्णाके जलमें क्यों लौ लगा रहा है ॥१॥
पशु - पक्षी , देवता , मनुष्य , राक्षस और अन्यान्य सभी संसारी योनियोंमें तू भटक आया । इन सब योनियोंमें तेरे बहुत - से घर , स्त्री , पुत्र , भाई और तुझे उत्पन्न करनेवाले माता - पिता हो चुके हैं ॥२॥
इन सबने तुझे वही विषय - भोगोंको प्रेम सिखाया , जिसके करनेसे सदा अनेक नरकोंमें जाना पड़ता है । वह मार्ग कभी नहीं बताया , जिसपर चलनेसे तेरा संसारी बन्धन कट जाय - तेरी जन्म - मरणसे मुक्ति हो जाय और तेरा परम कल्याण हो , मोक्षकी प्राप्ति हो ॥३॥
इस प्रकार यद्यपि तू कई तरहसे छला जा चुका है , फिर भी अबतक तू उन्हीं विषयोंके ही लिये जतन कर रहा है ! ( बार - बार दुःख भोगकर भी फिर उन्हींमें मन लगाता है ) परन्तु अरे दुष्ट ! ( तनिक विचार तो कर ) कामनारुपी अग्निमें भोगरुपी घी डालनेसे वह कैसे शान्त होगी ? ( जितनी ही भोगोंकी प्राप्ति होगी , कामनाकी अग्नि उतनी ही अधिक भड़केगी ) ॥४॥
जब विषयोंकी प्राप्ति नहीं हुई तब तुझे बड़ा दुःख हुआ , ( उनके नाशसे और उनके मिल जानेपर भी ) बड़ी विपत्ति प्राप्त हुई , स्वप्नमें भी सुख नहीं मिला । इसलिये वेदोंने इस विषयरुपी धनको , दोनों ही प्रकारसे , भूतकी आगके समान दुःखप्रद बतलाय है ( मतलब यह कि विषयी लोगोंको न तो विषयकी प्राप्तिमें सुख होता है , और न अप्राप्तिमें ही ) ॥५॥
अरे ! तेरा जीवन क्षण - क्षणमें क्षीण हो रहा है , इस दुर्लभ मनुष्य - शरीरको तूने व्यर्थ ही खो दिया । अतएव , हे तुलसिदास ! तू संसारी सुखकी आशा छोड़कर केवल श्रीहरिका भजन कर ! सावधान ! कालरुपी साँप संसारको खाये जा रहा है ( न जाने , कब किस घड़ी तू भी कालका कलेवा हो जाय ) ॥६॥