पावन प्रेम राम - चरन - कमल जनम लाहु परम ।
रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम ॥१॥
जोग, मख, बिबेक, बिरत, बेद - बिदित करम ।
करिबे कहँ कटु कठोर, सुनत मधुर, नरम ॥२॥
तुलसी सुनि, जानि - बूझि, भूलहि जनि भरम ।
तेहि प्रभुको होहि, जाहि सब ही की सरम ॥३॥
भावार्थः- श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंमें विशुद्ध ( निष्काम ) प्रेमका होना ही जीवनका परम फल है । राम - नाम लेते ही सारे धर्म सुलभ हो जाते हैं ॥१॥
वैसे तो योग, यज्ञ, विवेक, वैराग्य आदि अनेक कर्म वेदोंमें बतलाये गये हैं, जो सुननेमें तो बड़े ही मधुर और कोमल जान पड़ते हैं, परन्तु करनेमें बड़े ही कटु और कठोर हैं ॥२॥
इसलिये, हे तुलसीदास ! सुन और जान - बूझकर इस भ्रममें मत भूल, तू तो उस प्रभुका ही ( दास ) हो जिसे सबकी लाज हैं ! ॥३॥