सेइये सुसाहिब राम सो ।
सुखद सुसील सुजान सूर सुचि , सुंदर कोटिक काम सो ॥१॥
सारद सेस साधु महिमा कहैं , गुनगन - गायक साम सो ।
सुमिरि सप्रेम नाम जासों रति चाहत चंद्र - ललाम सो ॥२॥
गमन बिदेस न लेस कलेसको , सकुचत सकृत प्रनाम सो ।
साखी ताको बिदित बिभीषन , बैठो है अबिचल धाम सो ॥३॥
टहल सहल जन महल - महल , जागत चारो जुग जाम सो ।
देखत दोष न खीझत , रीझत सुनि सेवक गुन - ग्राम सो ॥४॥
जाके भजे तिलोक - तिलक भये , त्रिजग जोनि तनु तामसो ।
तुलसी ऐसे प्रभुहिं भजै जो न ताहि बिधाता बाम सो ॥५॥
भावार्थः - श्रीराम - सरीखे सुन्दर स्वामीकी सेवा करनी चाहिये । जो सुख देनेवाले , सुशील , चतुर , वीर , पवित्र और करोड़ों कामदेवोंके समान सुन्दर हैं ॥१॥
सरस्वती , शेषनाग और संतजन जिनकी महिमाका बखान करते हैं । सामवेद - सरीखे जिनके गुणोंका गान करते हैं । शिवजी - सरीखे भी जिनके नामका प्रेमपूर्वक स्मरण करते हुए प्रेम करना चाहते हैं ॥२॥
जिन्हें ( पिताकी आज्ञासे ) विदेश अर्थात् वन जाते समय तनिक भी क्लेश नहीं हुआ । जिन्हें एक बार भी कोई प्रणाम कर लेता है तो संकोचके मारे दब जाते हैं ; इस बातका साक्षी विभीषण प्रसिद्ध है , कि जो आज भी ( लंकामें ) अटल राज्य कर रहा है ॥३॥
जिनकी चाकरी करना बड़ा सहल है ( क्योंकि वे सेवककी भूल - चूककी ओर देखते ही नहीं ); जो अपने भक्तोंके घट - घटमें चारों युगोंमें , चारों पहर , जागते रहते हैं । ( हदयमें बैठकर सदा रखवाली करते हैं । ) अपराध देखते हुए भी सेवकपर क्रोध नहीं करते । परन्तु जब अपने सेवककी गुणावली सुनते हैं , तब उसपर रीझ जाते हैं ॥४॥
जिन्हें भजनेसे , तिर्यक् - योनिके ( पशु - पक्षी ) एवं तामसी शरीरवाले ( राक्षस ) भी तीनों लोकोंके तिलक बन गये । हे तुलसी ! ऐसे ( सुखद , सुशील , सुन्दर , भक्तवत्सल , चतुर पतितपावन ) प्रभुको जो नहीं भजते उनपर विधाता प्रतिकूल ही हैं ॥५॥