कटु कहिये गाढ़े परे, सुनि समुझि सुसाईं ।
करहिं अनभलेउ को भलो, आपनी भलाई ॥१॥
समरथ सुभ जो पाइये, बीर पीर पराई ।
ताहि तकैं सब ज्यों नदी बारिधि न बुलाई ॥२॥
अपने अपनेको भलो, चहैं लोग लुगाई ।
भावै जो जेहि तेहि भजै, सुभ असुभ सगाई ॥३॥
बाँह बोलि दै थापिये, जो निज बरिआई ।
बिन सेवा सों पालिये, सेवककी नाई ॥४॥
चूक - चपलता तुलसीदासको, तेरीयै निकाई. ॥६॥
भावार्थः-- जब संकट पड़ता है, तभी अपने स्वामीको भला - बुरा कहा ज्ञाता है, और अच्छे स्वामी यह समझ - बूझकर अपनी भलाईसे उस बुरे सेवकका भी भला कर देते हैं ॥१॥
समर्थ, कल्याणकारी और ऐसे शूरवीरको पाकर जो दुसरोंकी विपत्तिमें सहायता देता है, सब लोग उस ओर ऐसे देखा करते हैं, जैसे समुद्रके पास नदियाँ बिना बुलिये ही दौड़ - दौड़कर जाती हैं ॥२॥
संसारमें सभी स्त्री - पुरुष अपनी - अपनी भलाई चाहते हैं, शुभ अशुभके नातेसे जो ( देवता ) जिसको अच्छा लगता है, वह उसी देवताको भजता है । मुझे तो एक तुम्हारा ही भरोसा है ॥३॥
जिसे जबरदस्ती अपने बलका भरोसा देकर रख लिया वह यदि तुम्हारी सेवा नहीं करता, तो भी उसे सेवककी तरह पालना चाहिये ॥४॥
भूल और चंचलता तो सब मेरी ही हैं; पर तुम बड़े हो, मुझ - जैसे अपराधियोंको क्षमा करनेमें ही तुम्हारी बड़ाई है । यह तो सभी जानते हैं कि आदर करनेसे नीच भी ढीठ हो जाता और नीचता करने लगता है ॥५॥
तुम बन्धनोंसे छुड़ानेवाले हो - तुम्हारा ऐसा सुयश वेद - शास्त्र गाते हैं । मुझ तुलसीदासका भला अब तुम्हारी भलाईसे ही होगा, अन्यथा मैं तो किसी भी योग्य नहीं हूँ ॥६॥