राग वसन्त
सेवहु सिव - चरन - सरोज - रेनु । कल्यान - अखिल - प्रद कामधेनु ॥१॥
कर्पूर - गौर, करुना - उदार । संसार - सार, भुजगेन्द्र - हार ॥२॥
सुख - जन्मभूमि, महिमा अपार । निर्गुन, गुननायक, निराकार ॥३॥
त्रयनयन, मयन - मर्दन महेस । अहँकार निहार - उदित दिनेस ॥४॥
बर बाल निसाकर मौलि भ्राज । त्रैलोक - सोकहर प्रमथराज ॥५॥
जिन्ह कहँ बिधि सुगति न लिखी भाल । तिन्ह की गति कासीपति कृपाल ॥६॥
उपकारी कोऽपर हर - समान । सुर - असुर जरत कृत गरल पान ॥७॥
बहु कल्प उपायन करि अनेक । बिनु संभु - कृपा नहिं भव - बिबेक ॥८॥
बिग्यान - भवन, गिरिसुता - रमन । कह तुलसिदास मम त्राससमन ॥९॥
भावार्थः-- सम्पूर्ण कल्याणके देनेवाली कामधेनुकी तरह शिवजीके चरण - कमलकी रजका सेवन करो ॥१॥
वे शिवजी कपूरके समान गौरवर्ण हैं, करुणा करनेमें बड़े उदार हैं, इस अनात्मरुप असार संसारमें आत्मरुप सार - तत्त्व हैं, सर्पोंके राजा वासुकिका हार पहने रहते हैं ॥२॥
वे सुखकी जन्मभूमि हैं - समस्त सुख उन सुखरुपसे ही निकलते हैं, उनकी अपार महिमा है, वे तीनों गुणोंसे अतीत हैं, सब प्रकारके दिव्य गुणोंके स्वामी हैं, वे तीनों गुणोंसे अतीत हैं, सब प्रकारके दिव्य गुणोंके स्वामी हैं, वस्तुतः उनका कोई आकार नहीं है ॥३॥
उनके तीन नेत्र हैं, वे मदनका मर्दन करनेवाले महेश्वर, अहंकाररुप कोहारेके लिये उदय हुए सूर्य हैं ॥४॥
उनके मस्तकपर सुन्दर बाल चन्द्रमा शोभित है, वे तीनों लोकोंका शोक हरण करनेवाले तथा गणोंके राजा हैं ॥५॥
विधाताने जिनके मस्तकपर अच्छी गतिका कोई योग नहीं लिखा, काशीनाथ कृपालु शिवजी उनकी गति हैं - शिवजीकी कृपासे वे भी सुगति पा जाते हैं ॥६॥
श्रीशंकरके समान उपकारी संसारमें दूसरा कौन है, जिन्होंने विषकी ज्वालासे जलते हुए देव - दानवोंको बचानेके लिये स्वयं विष पी लिया ॥७॥
अनेक कल्पोंतक कितने ही उपाय क्यों न किये जायँ, शिवजीकी कृपा बिना संसारके असली स्वरुपका ज्ञान कभी नहीं हो सकता ॥८॥
तुलसीदास कहते हैं कि हे विज्ञानके धाम पार्वती - रमण शंकर ! आप ही मेरे भयको दूर करनेवाले हैं ॥९॥