मेरो मन हरिजू ! हठ न तजै ।
निसिदिन नाथ देउँ सिख बहु बिधि, करत सुभाउ निजै ॥१॥
ज्यों जुवती अनुभवति प्रसव अति दारुन दुख उपजै ।
ह्वै अनुकूल बिसारि सूल सठ पुनि खल पतिहिं भजै ॥२॥
लोलुप भ्रम गृहपसु ज्यौं जहँ तहँ सिर पदत्रान बजै ।
तदपि अधम बिचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़ लजै ॥३॥
हौं हार्यौं करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै ।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेकर प्रभु बरजै ॥४॥
भावार्थः- हे श्रीहरि ! मेरा मन हठ नहीं छोडता । हे नाथ ! मैं दिनरात इसे अनेक प्रकारसे समझाता हूँ, पर यह अपने ही स्वभावके अनुसार करती है, ( उस समय सोचती है कि अब पतिके पास नहीं जाऊँगी ), परन्तु वह मूर्खा सारी वेदनाको भूलकर पुनः उसी दुःख देनेवाले पतिका सेवन करती हैं ॥२॥
जैसे लालची कुत्ता जहाँ जाता है वहीं उसके सिर जूते पड़ते हैं तो भी वह नीच फिर उसी रास्ते भटकता है, मूर्खको जरा भी लज्जा नहीं आती ॥३॥
( ऐसी ही दशा मेरे इस मनकी है, विषयोंमें कष्ट पानेपर भी यह उन्हीकी ओर दौड़ा जाता है ) मैं नाना प्रकारके उपाय करते - करते थक गया । परन्तु यह मन अत्यन्त बलवान् और अजेय है । हे तुलसीदास ! यह तो तभी वश हो सकता है, जबकि प्रेरणा करनेवाले भगवान स्वयं ही इसे रोकें ॥४॥