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विनयावली १०२

विनय पत्रिका - विनयावली १०२

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो ।

श्रीरघुनाथ - कृपालु - कृपातें संत - सुभाव गहौंगो ॥१॥

जथालाभसंतोष सदा , काहू सों कछु न चहौंगो ।

पर - हित - निरत निरंतर , मन क्रम बचन नेम निबहौंगो ॥२॥

परुष बचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो ।

बिगत मान , सम सीतल मन , पर - गुन नहिं दोष कहौंगो ॥३॥

परिहरि देह - जनित चिंता , दुख - सुख समबुद्धि सहौंगो ।

तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि - भगति लहौंगो ॥४॥

भावार्थः - क्या मैं कभी इस रहनीसे रहुँगा ? क्या कृपालु श्रीरघुनाथजीकी कृपासे कभी मैं संतोंका - सा स्वभाव ग्रहण करुँगा ॥१॥

जो कुछ मिल जायगा उसीमें सन्तुष्ट रहुँगा , किसीसे ( मनुष्य या देवतासे ) कुछ भी नहीं चाहूँगा । निरन्तर दूसरोंकी भलाई करनेमें ही लगा रहूँगा । मन , वचन और कर्मसे यम - नियमों का पालन करुँगा ॥२॥

कानोंसे अति कठोर और असह्य वचन सुनकर भी उससे उत्पन्न हुई ( क्रोधकी ) आगमें न जलूँगा । अभिमान छोड़कर सबमें समबुद्धि रहूँगा और मनको शान्त रखूँगा । दूसरोंकी स्तुतिनिन्दा कुछ भी नहीं करुँगा ( सदा आपके चिन्तनमें लगे हुए मुझको दूसरोंकी स्तुति - निन्दाके लिये समय ही नहीं मिलेगा ) ॥३॥

शरीर - सम्बन्धी चिन्ताएँ छोड़कर सुख और दुःखको समान - भावसे सहूँगा । हे नाथ ! क्या तुलसीदास इस ( उपर्युक्त ) मार्गपर रहकर कभी अविचल हरि - भक्तिको प्राप्त करेगा ? ॥४॥

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Last Updated : November 11, 2010

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