कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो ।
श्रीरघुनाथ - कृपालु - कृपातें संत - सुभाव गहौंगो ॥१॥
जथालाभसंतोष सदा , काहू सों कछु न चहौंगो ।
पर - हित - निरत निरंतर , मन क्रम बचन नेम निबहौंगो ॥२॥
परुष बचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो ।
बिगत मान , सम सीतल मन , पर - गुन नहिं दोष कहौंगो ॥३॥
परिहरि देह - जनित चिंता , दुख - सुख समबुद्धि सहौंगो ।
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि - भगति लहौंगो ॥४॥
भावार्थः - क्या मैं कभी इस रहनीसे रहुँगा ? क्या कृपालु श्रीरघुनाथजीकी कृपासे कभी मैं संतोंका - सा स्वभाव ग्रहण करुँगा ॥१॥
जो कुछ मिल जायगा उसीमें सन्तुष्ट रहुँगा , किसीसे ( मनुष्य या देवतासे ) कुछ भी नहीं चाहूँगा । निरन्तर दूसरोंकी भलाई करनेमें ही लगा रहूँगा । मन , वचन और कर्मसे यम - नियमों का पालन करुँगा ॥२॥
कानोंसे अति कठोर और असह्य वचन सुनकर भी उससे उत्पन्न हुई ( क्रोधकी ) आगमें न जलूँगा । अभिमान छोड़कर सबमें समबुद्धि रहूँगा और मनको शान्त रखूँगा । दूसरोंकी स्तुतिनिन्दा कुछ भी नहीं करुँगा ( सदा आपके चिन्तनमें लगे हुए मुझको दूसरोंकी स्तुति - निन्दाके लिये समय ही नहीं मिलेगा ) ॥३॥
शरीर - सम्बन्धी चिन्ताएँ छोड़कर सुख और दुःखको समान - भावसे सहूँगा । हे नाथ ! क्या तुलसीदास इस ( उपर्युक्त ) मार्गपर रहकर कभी अविचल हरि - भक्तिको प्राप्त करेगा ? ॥४॥