अति आरत, अति स्वारथी, अति दीन - दुखारी ।
इनको बिलगु न मानिये, बोलहिं न बिचारी ॥१॥
लोक - रीति देखी सुनी, व्याकुल नर - नारी ।
अति बरषे अनबरषेहूँ, देहिं दैवहिं गारी ॥२॥
नाकहि आये नाथसों, साँसति भय भारी ।
कहि आयो, कीबी छमा, निज ओर निहारी ॥३॥
समै साँकरे सुमिरिये, समरथ हितकारी ।
सो सब बिधि ऊबर करै, अपराध बिसारी ॥४॥
बिगरी सेवककी सदा, साहेबहिं सुधारी ।
तुलसीपर तेरी कृपा, निरुपाधि निरारी ॥५॥
भावार्थः-- हे हनुमानजी ! अति पीड़ित, अति स्वार्थी, अति दीन और अति दुःखीके कहेका बुरा नहीं मानना चाहिये, क्योंकि ये घबराये हुए रहनेके कारण भले - बुरेका विचार करके नहीं बोलते ॥१॥
संसारमें यह प्रत्यक्ष देखा - सुना जाता है कि वर्षा अधिक होने या बिलकुल न होनेपर व्याकुल हुए स्त्री - पुरुष दैवको गालियाँ सुनाया करते हैं; परंतु इसका परमेश्वर कोई खयाल नहीं करता ॥२॥
जब कलियुगके कष्ट ओर भवसागरके भारी भयसे मेरे नाकों दम आ गया, तभी मैं भली - बुरी कह बैठा । अब तुम अपनी भक्तवत्सालताकी ओर देखकर मुझे क्षमा करे दो ॥३॥
संकटके समय लोग समर्थ और अपने हितकारीको ही याद करते हैं और वह भी उनके सारे अपराधोंको भुलाकर उनकी सब प्रकारसे रक्षा करता है ॥४॥
सेवककी भूलोंको सदासे स्वामी ही सुधारते आये हैं । फिर इस तुलसीदासपर तो तुम्हारी एक निराली एवं निच्छल कृपा है ॥५॥