माधव ! असि तुम्हारि यह माया ।
करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहिं, जब लगि करहु न दाया ॥१॥
सुनिय, गुनिय, समुझिय, समुझाइय, दसा हदय नहिं आवै ।
जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै ॥२॥
ब्रह्म - पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै ।
तौ कत मृगजल - रुप बिषय कारन निसि - बासर धावै ॥३॥
जेहिके भवन बिमल चिंतामनि, सो कत काँच बटोरै ।
सपने परबस परै, जागि देखत केहि जाइ निहोरै ॥४॥
ग्यान - भगति साधन अनेक, सब सत्य, झूँठ कछु नाहीं ।
तुलसिदास हरि - कृपा मिटै भ्रम, यह भरोस मनमाहीं ॥५॥
भावार्थः-- हे माधव ! तुम्हारी यह माया ऐसी ( दुस्तर ) है कि कितने ही उपाय करके पच मरो, पर जबतक तुम दया नहीं करते तबतक इससे पार पा जाना असम्भव ही है ॥१॥
सुनता हूँ, विचारता हूँ, समझता हूँ तथा दूसरोंको समझाता हूँ, पर तुम्हारी इस मायाका यथार्थ रहस्य समझमें नहीं आता और जबतक इसके वास्तविक रहस्यका अनुभव नहीं होता, तबतक मोहजनित संसारकी महान विपत्तियाँ दुःख देती ही रहेंगी ॥२॥
ब्रह्मामृत बड़ा ही मधुर और शान्तिकर है, यदि मनको वह अमृतरस कहीं चखनेको मिल जाय, तो फिर यह विषयरुपी झूठे मृगजलके लिये क्यों रात - दिन भटकता फिरे ॥३॥
जिसके घरमें ही निर्मल चिन्तामणि विद्यमान है, वह काँच क्यों बटोरेगा ? भाव यह कि जिसे ब्रह्मानन्द प्राप्त हो गया, वह मायिक विषयानन्दकी ओर क्यों ताकने लगा ? जैसे कोई सपनेमें किसीके पराधीन हो जाय और ( छूटनेके लिये उससे ) विनय करे, पर जब जाग जाय तब वह किससे क्यों निहोरा करेगा ? ॥४॥
ज्ञान, भक्ति आदि अनेक साधन हैं और सभी सच्चे हैं, इनमें झूठ एक भी नहीं । परन्तु तुलसीदासके मनमें तो इसी बातका भरोसा है कि अज्ञानका नाश केवल श्रीहरि - कृपासे ही हो सक ता है । अर्थात् भगवत्कृपा ही परम साधन है और वह सब जीवोंपर है ही, केवल उसपर भरोसा या परम विश्वास करना चाहिये ॥५॥