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विनयावली १३७

विनय पत्रिका - विनयावली १३७

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


भजिबे लायक , सुखदायक रघुनायक सरिस सरनप्रद दूजो नाहिन ।

आनँदभवन , दुखदवन , सोकसमन रमारमन गुन गनत सिराहिं न ॥१॥

आरत , अधम , कुजाति , कुटिल , खल , पतित , सभीत कहूँ जे समाहिं न ।

सुमिरत नाम बिबसहूँ बारक पावत सो पद , जहाँ सुर जाहिं न ॥२॥

जाके पद - कमल लुब्ध मुनि - मधुकर , बिरत जे परम सुगतिहु लुभाहिं न ।

तुलसिदास सठ तेहि न भजासि कस , कारुनीक जो अनाथहिं दाहिन ॥३॥

भावार्थः - भजन करनेयोग्य , सुख देनेवाला और शरणमें रखनेवाला स्वामी श्रीरघुनाथजीके समान दूसरा कोई नहीं है । उन आनन्दधाम , दुःखोंके नाश करनेवाले , शोकके हरनेवाले , लक्ष्मीरमण भगवानके गुण गिनते - गिनते कभी पूरे नहीं होते ॥१॥

जो दुःखी , नीच , अन्त्यज , कपटी , दुष्ट , पापी और भयभीत कहीं भी आश्रय नहीं पा सकते वे भी विवश होकर एक बार ही श्रीराम - नाम - स्मरण कर उस ( परम ) पदपर पहुँच जाते हैं , जहाँ देवता भी नहीं जा सकते ॥२॥

जिनके चरणरुपी कमलोंमें ऐसे वैराग्यसम्पन्न मुनिरुपी भ्रमर लुभाये रहते हैं , जिन्हें परमसुन्दर गति मोक्षतकका लोभ नहीं है । हे सठ तुलसीदास ! तू उस अनाथोंपर सदा कृपा करनेवाले ( परम ) करुणामय प्रभुका भजन क्यों नहीं करता ? ॥३॥

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Last Updated : November 11, 2010

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