भजिबे लायक , सुखदायक रघुनायक सरिस सरनप्रद दूजो नाहिन ।
आनँदभवन , दुखदवन , सोकसमन रमारमन गुन गनत सिराहिं न ॥१॥
आरत , अधम , कुजाति , कुटिल , खल , पतित , सभीत कहूँ जे समाहिं न ।
सुमिरत नाम बिबसहूँ बारक पावत सो पद , जहाँ सुर जाहिं न ॥२॥
जाके पद - कमल लुब्ध मुनि - मधुकर , बिरत जे परम सुगतिहु लुभाहिं न ।
तुलसिदास सठ तेहि न भजासि कस , कारुनीक जो अनाथहिं दाहिन ॥३॥
भावार्थः - भजन करनेयोग्य , सुख देनेवाला और शरणमें रखनेवाला स्वामी श्रीरघुनाथजीके समान दूसरा कोई नहीं है । उन आनन्दधाम , दुःखोंके नाश करनेवाले , शोकके हरनेवाले , लक्ष्मीरमण भगवानके गुण गिनते - गिनते कभी पूरे नहीं होते ॥१॥
जो दुःखी , नीच , अन्त्यज , कपटी , दुष्ट , पापी और भयभीत कहीं भी आश्रय नहीं पा सकते वे भी विवश होकर एक बार ही श्रीराम - नाम - स्मरण कर उस ( परम ) पदपर पहुँच जाते हैं , जहाँ देवता भी नहीं जा सकते ॥२॥
जिनके चरणरुपी कमलोंमें ऐसे वैराग्यसम्पन्न मुनिरुपी भ्रमर लुभाये रहते हैं , जिन्हें परमसुन्दर गति मोक्षतकका लोभ नहीं है । हे सठ तुलसीदास ! तू उस अनाथोंपर सदा कृपा करनेवाले ( परम ) करुणामय प्रभुका भजन क्यों नहीं करता ? ॥३॥