सुमिरु सनेहसों तू नाम रामरायको ।
संबल निसंबलको, सखा असहायको ॥१॥
भाग है अभागेहूको, गुन गुनहीनको ।
गाहक गरीबको, दयालु दानि दीनको ॥२॥
कुल अकुलीनको, सुन्यो है बेद साखि है ।
पाँगुरेको हाथ - पाँय, आँधरेको आँखि है ॥३॥
माय - बाप भूखेको, अधार निराधारको ।
सेतु भव - सागरको, हेतु सुखसारको ॥४॥
पतितपावन राम - नाम सो न दूसरो ।
सुमिरि सुभूमि भयो तुलसी सो ऊसरो ॥५॥
भावार्थः-- हे जीव ! तू प्रेमपूर्वक राजराजेश्वर श्रीरामके नामका स्मरण कर, उनका नाम पाथेयहीन पथिकोंके लिये मार्गव्यय ( कलेवा ) है, जिसका कोई सहाय नहीं है उसका सहायक है ॥१॥
यह रामनाम भाग्यहीनका भाग्य और गुणहीनका गुण है, ( रामनाम जपनेवाले भाग्यहीन और गुणहीन भी परम भगवान् और सर्वगुणसम्पन्न हो जाते हैं । ) यह गरीबोंका सम्मान करनेवाला ग्राहक और दोनोंके लिये दयालु दानी है ॥२॥
यह रामनाम कुलहीनोंका उच्च कुल ( रामनाम जपनेवाले चाण्डाल भी सबसे ऊँचे समझे जाते हैं ) और लँगड़े - लूलोंके हाथ - पैर तथा अन्धोंकी आँखे हैं ( रामनाम जपनेवाले संसार - मार्गको सहजहीमें लाँघ जाते है ) इस सिद्धान्तका वेद साक्षी है ॥३॥
वह रामनाम भूखोंका माँ - बाप और निराधारका आधार है । संसार - सागरसे पार जानेके लिये पुल है और सब सुखोंके सार भगवत प्राप्तिका प्रधान कारण है ॥४॥
रामनामके समान पतित - पावन दूसरा कौन है, जिसके स्मरण करनेसे तुलसीके समान ऊसर भी सुन्दर ( भक्ति - प्रेमरुपी प्रचुर धानकी ) उपजाऊ भूमि बन गया ॥५॥