जो पै दूसरो कोउ होइ ।
तौ हौं बारहि बार प्रभु कत दुख सुनावौं रोइ ॥१॥
काहि ममता दीनपर , काको पतितपावन नाम ।
पापमूल अजामिलहि केहि दियो अपनो धाम ॥२॥
रहे संभु बिरंचि सुरपति लोकपाल अनेक ।
सोक - सरि बूड़त करीसहि दई काहु न टेक ॥३॥
बिपुल - भूपति - सदसि महँ नर - नारि कह्यो ' प्रभु पाहि ।
सकल समरथ रहे , काहु न बसन दीन्हों ताहि ॥४॥
एक मुख क्यों कहौं करुनासिंधुके गुन - गाथ ?
भक्तहित धरि देह काह न कियो कोसलनाथ ! ॥५॥
आपसे कहुँ सौंपिये मोहि जो पै अतिहि घिनात ।
दासतुलसी और बिधि क्यों चरन परिहरि जात ॥६॥
भावार्थः - हे नाथ ! यदि कोई दूसरा ( मुझे शरणमें रखनेवाला ) होता , तो मैं बार - बार रोकर अपना दुःख आपको ही क्यों सुनाता ? ॥१॥
( आपको छोड़कर ) दीनोंपर किसकी ममता है , पतितपावन किसका नाम है ? और महापापी अजामिलको ( पुत्रसे धोखेसे आपका नारायण नाम लेनेपर ) किसने अपना परम धाम दे दिया ? ( ऐसे एक आप ही हैं और कोई नहीं है ) ॥२॥
शिव , ब्रह्मा , इन्द्र आदि अनेक लोकपाल थे ; पर शोकरुपी नदीमें डूबते हुए गजराजको किसीने भी नहीं बचाया ( आपहीको गरुड़ छोड़कर दौड़ना पड़ा ) ॥३॥
जब बहुत - से राजाओंकी सभामें ( नरके अवतार ) अर्जुनकी स्त्री द्रौपदीने ( दुःशासनद्वारा सताये जानेपर ) कहा कि ' हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिये ' - उस समय वहाँ सभी समर्थ थे , पर किसीने उसे वस्त्र नहीं दिया ( आपने ही वस्त्रावतार धारण कर उस अबलाकी लाज रखी ) ॥४॥
करुणासागर ! आप करुणा - समुद्रके करुणापूर्ण गुणोंकी कथाएँ एक मुँहसे कैसे कहूँ ! हे कोसलाधीश ! आपने भक्तोंके लिये अवतार धारण कर क्या - क्या नहीं किया ? ( भक्तोंके हितके लिये सभी कुछ किया ) ॥५॥
यदि आप मुझसे बहुत ही घिनाते हैं , तो मुझे किसी ऐसेके हाथ सौंप दीजिये जो आपके ही समान हो , ( नहीं तो ) यह तुलसीदास और किसी तरह भी आपके चरणोंको छोड़कर क्यों जाने लगा ? भाव यह कि मैं तो आपहीके चरणोंकी शरणमें रहूँगा ॥६॥