एकै दानि - सिरोमनि साँचो ।
जोइ जाच्यो सोइ जाचकताबस , फिरि बहु नाच न नाचो ॥१॥
सब स्वारथी असुर सुर नर मुनि कोउ न देत बिनु पाये ।
कोसलपालु कृपालु कलपतरु , द्रवत सकृत सिर नाये ॥२॥
हरिहु और अवतार आपने , राखी बेद - बड़ाई ।
लै चिउरा निधि दई सुदामहिं जद्यपि बाल मिताई ॥३॥
कपि सबरी सुग्रीव बिभीषन , को नहिं कियो अजाची ।
अब तुलसिहि दुख देति दयानिधि दारुन आस - पिसाची ॥४॥
भावार्थः - हे श्रीराम ! सच्चे दानियोंमें शिरोमणि एक आप ही हैं । जिस किसीने ( एक बार ) आपसे माँगा , फिर उसे माँगनेके लिये बहुत नाच नहीं नाचने पड़े अर्थात् वह पूर्णकाम हो गया ॥१॥
दैत्य , देवता , मनुष्य , मुनि - ये सभी स्वार्थी हैं । बिना कुछ लिये कोई कुछ नहीं देते । किन्तु हे कोशलपति ! आप ऐसे कृपालु कल्पतरु हैं , जो एक बार प्रणाम करते ही कृपावश पिघल जाते हैं ॥२॥
आपने अपने दूसरे - दूसरे अवतारोंमें भी वेदोंकी मर्यादा पाली है । जैसे , यद्यपि सुदामासे आपकी बचपनकी मित्रता थी , पर उससे जब चिउरा ले लिये , तभी उसे सम्पत्ति प्रदान की ॥३॥
हे रामजी ! आपने सुग्रीव , शबरी , विभीषण और हनुमान इनमेंसे किस - किसको याचनारहित ( पूर्णकाम ) नहीं कर दिया । हे दयानिधे ! अब तुलसीको यह दारुण आशारुपी पिशाचिनी दुःख दे रही है ( इससे मेरा पिण्ड छुड़ा दो और मुझे भी अपने दर्शन देकर कृतार्थ करो ) ॥४॥