देव
नौमि नारायणं नरं करुणायनं, ध्यान - पारायणं, ज्ञान - मूलं ।
अखिल संसार - उपकार - कारण, सदयहदय, तपनिरत, प्रणतानुकूलं ॥१॥
श्याम नव तामरस - दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं ।
तरुण रमणीय राजीव - लोचन ललित, वदन राकेश, कर - निकर - हासं ॥२॥
सकल सौंदर्य - निधि, विपुल गुणधाम, विधि - वेद - बुध - शंभु - सेवित, अमानं ।
अरुण पदकंज - मकरंद मंदाकिनी मधुप - मुनिवृंद कुर्वन्ति पानं ॥३॥
शक्र - प्रेरित घोर मदन मद - भंगकृत, क्रोधगत, बोधरत, ब्रह्मचारी ।
मार्कण्डेय मुनिवर्यहित कौतुकी बिनहि कल्पांत प्रभु प्रलयकारी ॥४॥
पुण्य वन शैलसरि बद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रुपं ।
सिद्ध - योगींद्र - वृंदारकानंदप्रद, भद्रदायक दरस अति अनूपं ॥५॥
मान मनभंग, चितभंग मद, क्रोध लोभादि पर्वतदुर्ग, भुवन - भर्त्ता ।
द्वेष - मत्सर - राग प्रबल प्रत्यूह प्रति, भूरि निर्दय, क्रूर कर्म कर्त्ता ॥६॥
विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा, तीव्र दर्प कंदर्प खर खङ्गधारा ।
धीर - गंभीर - मन - पीर - कारक, तत्र के वराका वयं विगतसारा ॥७॥
परम दुर्घट पथं खल - असंगत साथ, नाथ ! नहिं हाथ वर विरति - यष्टी ।
दर्शनारत दास, त्रसित माया - पाश, त्राहि हरि, त्राहि हरि, दास कष्टी ॥८॥
दासतुलसी दीन धर्म - संबलहीन, श्रमित अति, खेद, मति मोह नाशी ।
देहि अवलंब न विलंब अंभोज - कर, चक्रधर - तेजबल शर्मराशी ॥९॥
भावार्थः-- मैं उन श्रीनर - नारायणको नमस्कार करता हूँ, जो करुणाके स्थान, ध्यानके परायण और ज्ञानके कारण हैं । जो समस्त संसारका उपकार करनेवाले, दयापूर्ण हदयवाले, तपस्यामें लगे हुए और शरणागत भक्तोंपर कृपा करनेवाले हैं ॥१॥
जिनके शरीरकी कान्ति नविन - नील कमलोंकी मालाके समान है । जिनका सौन्दर्य करोड़ों कामदेवोंके सदृश और प्रकाश अगणित सूर्योंके समान हैं । नव - विकसित सुन्दर कमलोंके समान जिनके मनोहर नेत्र हैं, चन्द्रमाके समान सुन्दर मुख है और चन्द्रमाकी किरणोंके समान जिनकी मन्द मुसकान है ॥२॥
जो समस्त सुन्दरताके भण्डार, अनेक दिव्य गुणोंके स्थान और ब्रह्मा, वेद, विद्वान् और शिवजीके द्वारा सेवित होनेपर भी मानरहित हैं । जिनके लाल - लाल चरण - कमलोंसे प्रकट हुए मन्दाकिनी ( गंगाजी ) रुपी मकरन्दना मुनिरुपी भौंरे सदा पान करते हैं ॥३॥
जो इन्द्रसे भेजे गये भीषण कामदेवके मदका मर्दन करनेवाले, क्रोधरहित, शुद्ध बोधस्वरुप और ब्रह्मचारी हैं । जिन्होंने अपने सामर्थ्यसे बिना ही कल्पनातके मार्कण्डेयमुनिको दिखानेके लिये प्रलयकालकी लीला की थी ॥४॥
जो पवित्र वन, पर्वत और नदियोंसे पूर्ण बदरिकाश्रममें सदा पद्मासन लगाये एकरुपसे ( अटल ) विराजमान रहते हैं । जिनका अत्यन्त अनुपम दर्शन सिद्ध, योगीन्द्र और देवताओंको भी आनन्द और कल्याणका देनेवाला है ॥५॥
हे विश्वम्भर ! वहाँ आपके बदरिकाश्रमके मार्गमें ' मनभंग ' नामक पर्वत हैं , ( जिसे देखकर लोग आगे साधनका उत्साह भंग हो जाता है; ) वहाँ ' चित्तभंग ' पर्वत है, तो यहाँ मद ही चित्तभंगका काम करता है; वहाँ जैसे कठिन - कठिन पर्वत हैं तो यहाँ काम - लोभादि कठिन पर्वत हैं । ( वहाँ जैसे हिंसक पशु आदि बड़े विघ्न हैं तो ) यहाँ राग, द्वेष, मत्सर आदि अनेक बड़े - बड़े विघ्न हैं, जिनमेसे प्रत्येक बड़ा निर्दय और राग, द्वेष, मत्सर आदि अनेक बड़े - ब्वड़े विह्न हैं, जिनमेसें प्रत्येक बडा निर्दय और कुटिल कर्म करनेवाला है ॥६॥
यहाँ कामिनीकी अत्यन्त बाँकी चितवन ही छुरेकी भयंकर धार और कामका विष ही तलवारकी ते धार है, जो बड़े - बड़े धीर और गम्भीर पुरुषोंके मनको पीड़ा पहुँचानेवाला है फिर हम - सरीखे निर्बलोंकी तो गिनती ही क्या है ? ॥७॥
हे नाथ ! प्रथम तो यह आपके दर्शनका मार्ग ही बड़ा कठिन है, फिर दुष्ट और नीचोंका ( मेरा ) साथ हो गया है, सहारेके लिये हाथमें वैराग्यरुपी लकड़ी भी नहीं है । यह दास आपके दर्शनके लिये घबरा रहा है, फंदेमें फँसकर दुःखी हो रहा है । हे नाथ ! दासके कष्टको दूरकर इसकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥८॥
मुझ दीन तुलसीदासके पास धर्मरुपी मार्ग - व्यय ( कलेवा ) भी नहीं हैं, मैं थककर बड़ा दुःखी हो रहा हूँ, मोहने मेरी बुद्धिका भी नाश कर दिया है, अतएव हे चक्रधारी ! आप तेज, बल और सुखकी राशि हैं, मुझे बिना विलम्ब अपने कर - कमलका सहारा दीजिये ॥९॥