जो पै रहनि रामसों नाहीं ।
लगन
तौ नर खर कूकर सूकर सम बृथा जियत जग माहीं ॥१॥
काम , क्रोध , मद , लोभ , नींद , भय , भूख , प्यास सबहीके ।
मनुज देह सुर - साधु सराहत , सो सनेह सिय - पीके ॥२॥
सूर , सुजान , सुपूत सुलच्छन गनियत गुन गरुआई ।
बिनु हरिभजन इँदारुनके फल तजत नहीं करुआई ॥३॥
कीरति , कुल करतूति , भूति भलि , सील सरुप सलोने ।
तुलसी प्रभु - अनुराग - रहित जस सालन साग अलोने ॥४॥
भावार्थः - जिसकी श्रीरामचन्द्रजीसे प्रीति नहीं है , वह इस संसारमें गदहे , कुत्ते और सूअरके समान वृथा ही जी रहा है ॥१॥
काम , क्रोध , मद , लोभ , नींद , भय , भूख और प्यास तो सभीमें है । पर जिस बातके लिये देवता और संतजन इस मनुष्य - शरीरकी प्रशंसा करते हैं , वह तो श्रीसीतानाथ रघुनाथजीका प्रेम ही है ( भगवत्प्रेमसे ही मनुष्य - जीवनकी सार्थकता है ) ॥२॥
कोई शूरवीर , सुचतुर , माता - पिताकी आज्ञामें रहनेवाला सुपूत , सुन्दर लक्षणवाला तथा बड़े - बड़े गुणोंसे युक्त भले ही श्रेष्ठ गिना जाता हो परन्तु यदि वह हरिभजन नहीं करता है तो वह इन्द्रायणके फलके समान है , जो ( सब प्रकारसे देखनेमें सुन्दर होनेपर भी ) अपना कड़वापन नहीं छोड़ता ॥३॥
कीर्ति , ऊँचा कुल , अच्छी करनी , बड़ी विभूति , शील और लावण्यमय स्वरुप होनेपर यदि वह प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके प्रति प्रेमसे रहित है , तो ये सब गुण ऐसे ही हैं , जैसे बिना नमककी साग - भाजी ॥४॥