जयति निर्भरानंद - संदोह कपिकेसरी, केसरी - सुवन भुवनैकभर्त्ता ।
दिव्यभूम्यंजना - मंजुलाकर - मणे, भक्त - संताप - चिंतापहर्त्ता ॥१॥
जयति धर्मार्थ - कामापवर्गद विभो, ब्रह्मलोकादि - वैभव - विरागी ।
वचन - मानस - कर्म सत्य - धर्मव्रती, जानकीनाथ - चरणानुरागी ॥२॥
जयति बिहगेश - बलबुद्धि - बेगाति - मद - मथन, मनमथ - मथन, ऊर्ध्वरेता ।
महानाटक - निपुन, कोटि - कविकुल - तिलक, गानगुण - गर्व - गंधर्व - जेता ॥३॥
जयति मंदोदरी - केश - कर्षण, विद्यमान दशकंठ भट - मुकुट मानी ।
भूमिजा - दुःख - संजात रोषांतकृत - जातनाजंतु कृत जातुधानी ॥४॥
जयति रामायण - श्रवण - संजात रोमांच, लोचन सजल, शिथिल वाणी ।
रामपदपद्म - मकरंद - मधुकर, पाहि, दास तुलसी शरण, शूलपाणी ॥५॥
भावार्थः-- हे हनुमानजी ! तुम्हारे जय हो । तुम पूर्ण आनन्दके समूह, वानरोंमें साक्षात् केसरी सिंह ( बबर शेर ), केसरीके पुत्र और संसारके एकमात्र भरण - पोषण करनेवाले हो । तुम अंजनीरुपे दिव्य भूमिकी सुन्दर खानिसे निकली हुई मनोहर मणि हो और भक्तोंके सन्ताप और चिन्ताओंको सदा नाश करते हो ॥१॥
हे विभो ! तुम्हारी जय हो । तुम धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके देनेवाले हो, ब्रह्मलोकतकके समस्त भोग - ऐश्वर्योंमे वैराग्यवान् हो । मन, वचन और कर्मसे सत्यरुप धर्मके व्रतका पालन करनेवाले हो और श्रीजानकीनाथ रामजीके चरणोंके परम प्रेमी हो ॥२॥
तुम्हारी जय हो । तुम गरुड़के बल, बुद्धि और वेगके बड़े भारी गर्वको खर्व करनेवाले तथा कामदेवके नाश करनेवाले बाल - ब्रह्मचारी हो, तुम बड़े - बड़े नाटकोंके निर्माण और अभिनयमें निपुण हो, करोड़ों महाकवियोंके कुलशिरोमणि और गान - विद्याका गर्व करनेवाले विजय पानेवाले हो ॥३॥
तुम्हारी जय हो । तुम वीरोंके मुकुटमणि, महा अभिमानी रावणके सामने उसकी स्त्री मन्दोदरीके बाल खींचनेवाले हो । तुमने श्रीजानकीजीके दुःखको देखकर उत्पन्न हुए क्रोधके वश हो राक्षसियोंको ऐसा क्लेश दिया जैसा यमराज पापी प्राणियोंको दिया करता है ॥४॥
तुम्हारी जय हो । श्रीरामजीका चरित्र सुनते ही तुम्हारा शरीर पुलकित हो जाता है, तुम्हारे नेत्रोंमें प्रेमके आँसू भर आते हैं और तुम्हारी वाणी गदगद हो जाती है । हे श्रीरामके चरण - कमल - परागके रसिक भौंरे ! हे हनुमान - रुपी त्रिशूलधारी शिव ! यह दास तुलसी तुम्हारी शरण है, इसकी रक्षा करो ॥५॥