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विनयावली १००

विनय पत्रिका - विनयावली १००

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो ।

ज्यों छल छाँड़ि सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो ॥१॥

ज्यों चितई परनारि , सुने पातक - प्रपंच घर - घरके ।

त्यों न साधु , सुरसरि - तरंग - निरमल गुनगन रघुबरके ॥२॥

ज्यों नासा सुगंधरस - बस , रसना षटरस - रति मानी ।

राम - प्रसाद - माल जूठन लगि त्यों न ललकि ललचानी ॥३॥

चंदन - चंदबदनि - भूषन - पट ज्यों चह पाँवर परस्यो ।

त्यों रघुपति - पद - पदुम - परस को तनु पातकी न तरस्यो ॥४॥

ज्यों सब भाँति कुदेव कुठाकुर सेये बपु बचन हिये हूँ ।

त्यों न राम सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ ॥५॥

चंचल चरन लोभ लगि लोलुप द्वार - द्वार जग बागे ।

राम - सीय - आस्त्रमनि चलत त्यों भये न स्रमित अभागे ॥६॥

सकल अंग पद - बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है ।

है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु - मूरति कृपामई है ॥७॥

भावार्थः - मेरा मन आपसे ऐसा कभी नहीं लगा , जैसा कि वह कपट छोड़कर , स्वभावसे ही निरन्तर विषयोंमें लगा रहता है ॥१॥

जैसे मैं परायी स्त्रीको ताकता फिरता हूँ , घर - घरके पापभरे प्रपंच सुनता हूँ , वैसे न तो कभी साधुओंके दर्शन करता हूँ , और न गंगाजीकी निर्मल तरंगोंके समान श्रीरघुनाथजीकी गुणावली ही सुनता हूँ ॥२॥

जैसे नाक अच्छी - अच्छी सुगन्धके रसके अधीन रहती हैं , और जीभ छः रसोंसे प्रेम करती हैं , वैसे यह नाक भगवानपर चढ़ी हुई मालाके लिये और जीभ भगवत - प्रसादके लिये कभी ललक - ललककर नहीं ललचाती ॥३॥

जैसे यह अधम शरीर चन्दन , चन्द्रवदनी युवती , सुन्दर गहने और ( मुलायम ) कपड़ोंको स्पर्श करना चाहता है , वैसे श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंका स्पर्श करनेके लिये यह कभी नहीं तरसता ॥४॥

जैसे मैंने शरीर , वचन और हदयसे , बुरे - बुरे देवों और दुष्ट स्वामियोंकी सब प्रकारस्से सेवा की , वैसे उन रघुनाथजीकी सेवा कभी नहीं की , जो ( तनिक सेवासे ) अपनेको खूब ही कृतज्ञ मानने लगते हैं और एक बार प्रणाम करते ही ( अपार करुणाके कारण ) सकुचा जाते हैं ॥५॥

जैसे इन चंचल चरणोंने लोभवश , लालची बनकर द्वार - द्वार ठोकरें खायी हैं , वैसे ये अभागे श्रीसीतारामजीके ( पुण्य ) आश्रमोंमें जाकर कभी स्वप्नमें भी नहीं थके । ( स्वप्नमें भी कभी भगवानके पुण्य आश्रमोंमें जानेका कष्ट नहीं उठाया ) ॥६॥

हे प्रभो ! ( इस प्रकार ) मेरे सभी अंग आपके चरणोंसे विमुख हैं । केवल इस मुखसे आपके नामकी ओट ले रखी है ( और यह इसलिये कि ) तुलसीकी एक यही निश्चय है कि आपकी मूर्ति कृपामयी है । ( आप कृपासागर होनेके कारण , नामके प्रभावसे मुझे अवश्य अपना लेंगे ) ॥७॥

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Last Updated : November 11, 2010

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