ऐसी हरि करत दासपर प्रीति ।
निज प्रभुता बिसारि जनके बस, होत सदा यह रीति ॥१॥
जिन बाँधे सुर - असुर, नाग - नर, प्रबल करमकी डोरी ।
सोइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठि बाँध्यो सकत न छोरी ॥२॥
जाकी मायाबस बिरंचि सिव, नाचत पार न पायो ।
करतल ताल बजाय ग्वाल - जुवतिन्ह सोइ नाच नचायो ॥३॥
बिस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति, बेद - बिदित यह लीख ।
बलिसों कछु न चली प्रभुता बरु ह्वै द्विज माँगी भीख ॥४॥
जाको नाम लिये छूटत भव - जनम - मरन दुख - भार ।
अंबरीष - हित लागि कृपानिधि सोइ जनमे दस बार ॥५॥
जोग - बिराग, ध्यान - जप - तप - करि, जेहि खोजत मुनि ग्यानी ।
बानर - भालु चपल पसु पामर, नाथ तहाँ रति मानी ॥६॥
लोकपाल, जम, काल, पवन, रबि, ससि सब आग्याकारी ।
तुलसिदास प्रभु उग्रसेनके द्वार बेंत कर धारी ॥७॥
भावार्थः- श्रीहरि अपने दासपर इतना प्रेम करते हैं कि अपनी सारी प्रभुता भूलकर उस भक्तके ही अधीन हो जाते हैं । उनकी यह रीति सनातन है ॥१॥
जिस परमात्माने देवता, दैत्य, नाग और मनुष्योंको कर्मोंकी बड़ी मजबूत डोरीमें बाँध रखा है, उसी अखण्ड परब्रह्मको यशोदाजीने प्रेमवश जबरदस्ती ( ऊखलसे ) ऐसा बाँध दिया कि जिसे आप खोल भी नहीं सके ॥२॥
जिसकी मायाके वश होकर ब्रह्मा और शिवजीने नाचते - नाचते उसका पार नहीं पाया, उसीको गोप - रमणियोंने ताल बजा - बजाकर ( आँगनमें ) नचाया ॥३॥
वेदका यह सिद्धान्त प्रसिद्ध है कि भगवान् सारे विश्वका भरण - पोषण करनेवाले, लक्ष्मीजीके स्वामी और तीनों लोकोंके अधीश्वर हैं, ऐसे प्रभुकी भी भक्त राजा बलिके आगे कुछ भी प्रभुता नहीं चल सकी, वरं प्रेमवश ब्राह्मण बनकर उससे भीख माँगननी पड़ी ॥४॥
जिसके नाम - समरणमात्रसे संसारके जन्ममरणरुपी दुःखोंके भारसे जीव छूट जाते हैं,क उसी कृपानिधिने भक्त अम्बरीषके लिये स्वयं दस बार अवतार धारण किया ॥५॥
जिसको संयमी मुनिगण योग, वैराग्य, ध्यान, जप और तप करके खोजते रहते हैं, उसी नाथने बंदर, रीछ आदि नीच चंचल पशुओंसे प्रीति की ॥६॥
लोकपाल, यमराज, काल, वायु, सूर्य और चन्द्रमा आदि सब जिसके आज्ञाकारी हैं, वही प्रभु प्रेमवश उग्रसेनके द्वारपर हाथमें लकड़ी लिये दरवानकी तरह खड़ा रहता है ॥७॥