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विनयावली ९८

विनय पत्रिका - विनयावली ९८

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


जो पै राम - चरन - रति होती ।

तौ कत त्रिबिध सूल निसिबासर सहते बिपति निसोती ॥१॥

जो संतोष - सुधा निसिबासर सपनेहुँ कबहुँक पावै ।

तौ कत बिषय बिलोकि झूँठ जल मन - कुरंग ज्यों धावै ॥२॥

जो श्रीपति - महिमा बिचारि उर भजते भाव बढ़ाए ।

तौ कत द्वार - द्वार कूकर ज्यों फिरते पेट खलाए ॥३॥

जे लोलुप भये दास आसके ते सबहीके चेरे ।

प्रभु - बिस्वास आस जीती जिन्ह , ते सेवक हरि केरे ॥४॥

नहिं एकौ आचरन भजनको , बिनय करत हौं ताते ।

कीजै कृपा दासतुलसी पर , नाथ नामके नाते ॥५॥

भावार्थः - यदि श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रेम होता , तो रात - दिन तीनों प्रकारके कष्ट और निखालिस विपत्ति ही क्यों सहनी पड़ती ॥१॥

यदि यह मन दिन - रातमें कभी स्वप्नमें भी सन्तोषरुपी अमृत पा जाय तो विषयरुपी झूठे मृग - जलको देखकर उसके पीछे यह मृग बनकर क्यों दौड़े ? ॥२॥

यदि हम भगवान् लक्ष्मीकान्तकी महिमाका हदयमें विचारकर प्रेम बढ़ाकर उनका भजन करते , तो आज कुत्तेकी तरह द्वार - द्वार पेट दिखाते हुए क्यों मारेमारे फिरते ? ॥३॥

जो लोभी आशाके दास बन गये हैं , वे तो सभीके गुलाम हैं ( विषयोंकी आशा रखनेवालेको ही सबकी गुलामी करनी पड़ती है ) और जिन्होंने भगवानमें विश्वास करके आशाको जीत लिया है , वे ही भगवानके सच्चे सेवक हैं ॥४॥

मैं आपसे इसलिये विनय कर रहा हूँ कि मुझमें भजनका तो एक भी आचरण नहीं हैं । ( केवल आपका नाम जपता हूँ ) हे नाथ ! तुलसीदासपर इस नामके नातेसे ही कृपा कीजिये ॥५॥

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Last Updated : November 11, 2010

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