जो पै राम - चरन - रति होती ।
तौ कत त्रिबिध सूल निसिबासर सहते बिपति निसोती ॥१॥
जो संतोष - सुधा निसिबासर सपनेहुँ कबहुँक पावै ।
तौ कत बिषय बिलोकि झूँठ जल मन - कुरंग ज्यों धावै ॥२॥
जो श्रीपति - महिमा बिचारि उर भजते भाव बढ़ाए ।
तौ कत द्वार - द्वार कूकर ज्यों फिरते पेट खलाए ॥३॥
जे लोलुप भये दास आसके ते सबहीके चेरे ।
प्रभु - बिस्वास आस जीती जिन्ह , ते सेवक हरि केरे ॥४॥
नहिं एकौ आचरन भजनको , बिनय करत हौं ताते ।
कीजै कृपा दासतुलसी पर , नाथ नामके नाते ॥५॥
भावार्थः - यदि श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रेम होता , तो रात - दिन तीनों प्रकारके कष्ट और निखालिस विपत्ति ही क्यों सहनी पड़ती ॥१॥
यदि यह मन दिन - रातमें कभी स्वप्नमें भी सन्तोषरुपी अमृत पा जाय तो विषयरुपी झूठे मृग - जलको देखकर उसके पीछे यह मृग बनकर क्यों दौड़े ? ॥२॥
यदि हम भगवान् लक्ष्मीकान्तकी महिमाका हदयमें विचारकर प्रेम बढ़ाकर उनका भजन करते , तो आज कुत्तेकी तरह द्वार - द्वार पेट दिखाते हुए क्यों मारेमारे फिरते ? ॥३॥
जो लोभी आशाके दास बन गये हैं , वे तो सभीके गुलाम हैं ( विषयोंकी आशा रखनेवालेको ही सबकी गुलामी करनी पड़ती है ) और जिन्होंने भगवानमें विश्वास करके आशाको जीत लिया है , वे ही भगवानके सच्चे सेवक हैं ॥४॥
मैं आपसे इसलिये विनय कर रहा हूँ कि मुझमें भजनका तो एक भी आचरण नहीं हैं । ( केवल आपका नाम जपता हूँ ) हे नाथ ! तुलसीदासपर इस नामके नातेसे ही कृपा कीजिये ॥५॥