जयति वात - संजात, विख्यात विक्रम, बृहद्वाहु, बलबिपुल, बालधिबिसाला ।
जातरुपाचलाकारविग्रह, लसल्लोम विद्युल्लता ज्वालमाला ॥१॥
जयति बालार्क वर - वदन, पिंगल - नयन, कपिश - कर्कश - जटाजूटधारी ।
विकट भृकुटी, वज्र दशन नख, वैरि - मदमत्त - कुंजर - पुंज - कुंजरारी ॥२॥
जयति भीमार्जुन - व्यालसूदन - गर्वहर, धनंजय - रथ - त्राण - केतू ।
भीष्म - द्रोण - कर्णादि - पालित, कालदृक सुयोधन - चमू - निधन - हेतू ॥३॥
जयति गतराजदातार, हंतार संसार - संकट, दनुज - दर्पहारी ।
ईति - अति - भीति - ग्रह - प्रेत - चौरानल - व्याधिबाधा - शमन घोर मारी ॥४॥
जयति निगमागम व्याकरण करणलिपि, काव्यकौतुक - कला - कोटि - सिंधो ।
सामगायक, भक्त - कामदायक, वामदेव, श्रीराम - प्रिय - प्रेम बंधो ॥५॥
जयति घर्मांशु - संदग्ध - संपाति - नवपक्ष - लोचन - दिव्य - देहदाता ।
कालकलि - पापसंताप - संकुल सदा, प्रणत तुलसीदास तात - माता ॥६॥
भावार्थः-- हे हनुमानजी ! तुम्हारी जय हो । तुम पवनसे उत्पन्न हुए हो, तुम्हारा पराक्रम प्रसिद्ध है । तुम्हारी भुजाएँ बड़ी विशाल हैं, तुम्हारा बल अपार है । तुम्हारी पूँछ बड़ी लम्बी है । तुम्हारा शरीर सुमेरु - पर्वतके समान विशाल एवं तेजस्वी है । तुम्हारी रोमावली बिजलीकी रेखा अथवा ज्वालाओंकी मालाके समान सुन्दर है, नेत्र पीले हैं । तुम्हारे सिरपर भूरें रंगकी कठोर जटाओंका जूड़ा बँधा हुआ है । तुम्हारी भौंहें टेढ़ी हैं । तुम्हारे दाँत और नख वज्रके समान हैं, तुम शत्रुरुपी मदमत्त हाथियोके दलको विदीर्ण करनेवाले सिंहके समान हो ॥२॥
तुम्हारी जय हो । तुम भीमसेन, अर्जुन और गरुड़के गर्वको हरनेवाले तथा अर्जुनके रथकी पताकापर बैठकर उसकी रक्षा कर नेवाले हो । तुम भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण आदिसे रक्षित कालकी दृष्टिके समान भयानक, दुर्योधनकी महान सेनाका नाश करनेमें मुख्य कारण हो ॥३॥
तुम्हारी जय हो । तुम सुग्रीवके गये हुए राज्यको फिरसे दिलानेवाले, संसारके संकटोंका नाश करनेवाले और दानवोंके दर्पको चूर्ण करनेवाले हो । तुम अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिड्डी, चूहे, पक्षी और राज्यके आक्रमणरुप खेतीमें बाधक छः प्रकारकी ईति, महाभाव, ग्रह, प्रेत, चोर, अग्निकाण्ड, रोग, बाधा और महामारी आदि क्लेशोंके नाश करनेवाले हो ॥४॥
तुम्हारी जय हो । तुम वेद, शास्त्र और व्याकरणपर भाष्य लिखनेवाले और काव्यके कौतुक तथा करोड़ों कलाओंके समुद्र हो । तुम सामवेदका गान करनेवाले, भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाले साक्षात् शिवरुप हो और श्रीरामके प्यारे प्रेमी बन्धु हो ॥५॥
तुम्हारी जय हो । तुम सूर्यसे जले हुए सम्पाती नामक ( जटायुके भाई ) गृध्रको नये पंख, नेत्र और दिव्य शरीरके देनेवाले हो और कलिकालके पाप - सन्तापोंसे पूर्ण इस शरणागत तुलसीदासके माता - पिता हो ॥६॥