राग जैतश्री
मन इतनोई या तनुको परम फलु ।
सब अँग सुभग बिंदुमाधव - छबि, तजि सुभाव, अवलोकु एक पलु ॥१॥
तरुन अरुन अंभोज चरन मृदु, नख - दुति हदय - तिमिर - हारी ।
कुलिस - केतु - जव - जलज रेख बर, अंकुस मन - गज - बसकारी ॥२॥
कनक - जटित मनि नूपुर, मेखल, कटि - तट रटति मधुर बानी ।
त्रिबली उदर, गँभीर नाभि सर, जहँ उपजे बिरंचि ग्यानी ॥३॥
उर बनमाल, पदिक अति सोभित, बिप्र - चरन चित कहँ करषै ।
स्याम तामरस - दाम - बरन बपु पीत बसन सोभा बरषै ॥४॥
कर कंकन केयूर मनोहर, देति मोद मुद्रिक न्यारी ।
गदा कंज दर चारु चक्रधर, नाग - सुंड - सम भुज चारी ॥५॥
कंबुग्रीव, छबिसीव चिबुक द्विज, अधर अरुन, उन्नत नासा ।
नव राजीव नयन, ससि आनन, सेवक - सुखद बिसद हासा ॥६॥
रुचिर कपोल, श्रवन कुंडल, सिर मुकुट, सुतिलक भाल भ्राजै ।
ललित भृकुटि, सुंदर चितवनि, कच निरखि मधुप - अवली लाजै ॥७॥
रुप - सील - गुन - खानि दच्छ दिसि, सिंधु - सुता रत - पद - सेवा ।
जाकी कृपा - कटाच्छ चहत सिव, बिधि, मुनि, मनुज, दनुज, देवा ॥८॥
तुलसिदास भव - त्रास मिटै तब, जब मति येहि सरुप अटकै ।
नाहिंत दीन मलीन हीनसुख, कोटि जनम भ्रमि भ्रमि भटकै ॥९॥
भावार्थः-- हे मन ! इस शरीरका परम फल केवल इतना ही है कि नखसे शिखतक सुन्दर अंगोंवाले श्रीविन्दुमाधवजीकी छबिका पलभरके लिये अपने चंचल स्वभावको छोड़कर स्थिरताके साथ प्रेमसे दर्शन कर ॥१॥
जिनके कोमल चरण नये खिले हुए लाल कमलके समान हैं, नखोंकी ज्योति हदयके अज्ञानरुप अन्धकारको हरनेवाली हैं । जिन चरणोंमें वज्र, ध्वजा, जी और कमल आदिकी सुन्दर रेखाएँ हैं । और अंकुशका चिह्न मनरुपी हाथीको वशमें करनेवाला है ॥२॥
पैरोंमें सोनेके रत्नजड़ित नूपुर और कमरमें तागड़ी मधुरस्वरसे बज रही हैं । पेटपर तीन रेखाएँ पड़ी हैं, नाभि सरोवरके समान गहरी है, जहाँसे ब्रह्माजी - सरीखे ज्ञानी उत्पन्न हुए हैं ॥३॥
हदयपर वनमाला और उसके बीचमें मणियोंकी चौकी अत्यन्त शोभायमान है, भृगुजीके चरणका चिह्न तो चित्तको खींचे लेता है । नीले कमलके फूलोंकी मालाके समान जिनके शरीरका वर्ण है, उसपर पीताम्बर मानो शोभाकी वर्षा ही कर रहा है ॥४॥
हाथोंमें मनोहर कंकण और बाजूबंद हैं, अंगूठी निराला ही आनन्द दे रही हैं । हाथीकी सूँडसदृश विशाल चारों भुजाओंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हैं ॥५॥
शंखके समान ग्रीवा सुन्दरताकी सीमा है । सुन्दर ठोड़ी, दाँत, लाल होठ और नुकीली नासिका है, नविन कमलके सदृश नेत्र, चन्द्रमाके समान मुखमण्डल और मृदु मुसकान भक्तोंको सुख देनेवाली हैं ॥६॥
सुन्दर कपोल, कानोंमें कुण्डल, मस्तकपर मुकुट और भालपर सुन्दर तिलक शोभित हो रहा है । सुन्दर कटीली भौंहे और मनोहर चितवन है उओर जिनके काले केशोंको देखकर भौंरोंकी पंक्ति भी लज्जित हो रही है ॥७॥
रुप, शील और गुणोंकी खानि सिन्धुसुता श्रीलक्ष्मीजी दक्षिणभागमें विराजित होकर चरणसेवा कर रही है, जिनकी कृपादृष्टि शिव, ब्रह्मा, मुनि, मनुष्य, दैत्य और देवता भी चाहते हैं ॥८॥
तुलसीदासका संसारजनित भय तभी मिट सकता है, जब उसकी बुद्धि इस सुन्दर छविमें अटक जाय; नहीं तो वह दीन, मुलीन और सुखहीन होकर करोड़ों जन्मोंतक व्यर्थ ही भटकता फिरेग ॥९॥